समास (Compound)
दो या अधिक शब्दों (पदों) का परस्पर संबद्ध बतानेवाले शब्दों अथवा प्रत्ययों का लोप होने पर उन दो या अधिक शब्दों से जो एक स्वतन्त शब्द बनता है, उस शब्द को सामासिक शब्द कहते है और उन दो या अधिक शब्दों का जो संयोग होता है, वह समास कहलाता है।
दूसरे अर्थ में- कम-से-कम शब्दों में अधिक-से-अधिक अर्थ प्रकट करना 'समास' कहलाता है।
समास में कम-से-कम दो पदों का योग होता है।
वे दो या अधिक पद एक पद हो जाते है: 'एकपदीभावः समासः'।
समास में समस्त होनेवाले पदों का विभक्ति-प्रत्यय लुप्त हो जाता है।
समस्त पदों के बीच सन्धि की स्थिति होने पर सन्धि अवश्य होती है। यह नियम संस्कृत तत्सम में अत्यावश्यक है।
वे दो या अधिक पद एक पद हो जाते है: 'एकपदीभावः समासः'।
समास में समस्त होनेवाले पदों का विभक्ति-प्रत्यय लुप्त हो जाता है।
समस्त पदों के बीच सन्धि की स्थिति होने पर सन्धि अवश्य होती है। यह नियम संस्कृत तत्सम में अत्यावश्यक है।
समास के भेद
समास के मुख्य सात भेद है:-
(1) तत्पुरुष समास ( Determinative Compound)
(2) कर्मधारय समास (Appositional Compound)
(3) द्विगु समास (Numeral Compound)
(4) बहुव्रीहि समास (Attributive Compound)
(5) द्वन्द समास (Copulative Compound)
(6) अव्ययीभाव समास(Adverbial Compound)
(7) नञ समास
(1) तत्पुरुष समास ( Determinative Compound)
(2) कर्मधारय समास (Appositional Compound)
(3) द्विगु समास (Numeral Compound)
(4) बहुव्रीहि समास (Attributive Compound)
(5) द्वन्द समास (Copulative Compound)
(6) अव्ययीभाव समास(Adverbial Compound)
(7) नञ समास
पदों की प्रधनता के आधार पर वर्गीकरण
पूर्वपद प्रधान- अव्ययीभाव
उत्तरपद प्रधान- तत्पुरुष, कर्मधारय व द्विगु
दोनों पद प्रधान- द्वन्द
दोनों पद अप्रधान- बहुव्रीहि (इसमें कोई तीसरा अर्थ प्रधान होता है )
उत्तरपद प्रधान- तत्पुरुष, कर्मधारय व द्विगु
दोनों पद प्रधान- द्वन्द
दोनों पद अप्रधान- बहुव्रीहि (इसमें कोई तीसरा अर्थ प्रधान होता है )
(1)तत्पुरुष समास :- जिस समास में बाद का अथवा उत्तरपद प्रधान होता है तथा दोनों पदों के बीच का कारक-चिह्न लुप्त हो जाता है, उसे तत्पुरुष समास कहते है।
जैसे-
जैसे-
तुलसीकृत= तुलसी से कृत
शराहत= शर से आहत
राहखर्च= राह के लिए खर्च
राजा का कुमार= राजकुमार
शराहत= शर से आहत
राहखर्च= राह के लिए खर्च
राजा का कुमार= राजकुमार
तत्पुरुष समास में अन्तिम पद प्रधान होता है। इस समास में साधारणतः प्रथम पद विशेषण और द्वितीय पद विशेष्य होता है। द्वितीय पद, अर्थात बादवाले पद के विशेष्य होने के कारण इस समास में उसकी प्रधानता रहती है।
तत्पुरुष समास के भेद
तत्पुरुष समास के छह भेद होते है-
(i)कर्म तत्पुरुष
(ii) करण तत्पुरुष
(iii)सम्प्रदान तत्पुरुष
(iv)अपादान तत्पुरुष
(v)सम्बन्ध तत्पुरुष
(vi)अधिकरण तत्पुरुष
(i)कर्म तत्पुरुष
(ii) करण तत्पुरुष
(iii)सम्प्रदान तत्पुरुष
(iv)अपादान तत्पुरुष
(v)सम्बन्ध तत्पुरुष
(vi)अधिकरण तत्पुरुष
(i)कर्म तत्पुरुष (द्वितीया तत्पुरुष)-इसमें कर्म कारक की विभक्ति 'को' का लोप हो जाता है। जैसे-
समस्त-पद | विग्रह |
---|---|
स्वर्गप्राप्त | स्वर्ग (को) प्राप्त |
कष्टापत्र | कष्ट (को) आपत्र (प्राप्त) |
आशातीत | आशा (को) अतीत |
गृहागत | गृह (को) आगत |
सिरतोड़ | सिर (को) तोड़नेवाला |
चिड़ीमार | चिड़ियों (को) मारनेवाला |
सिरतोड़ | सिर (को) तोड़नेवाला |
गगनचुंबी | गगन को चूमने वाला |
यशप्राप्त | यश को प्राप्त |
ग्रामगत | ग्राम को गया हुआ |
रथचालक | रथ को चलाने वाला |
जेबकतरा | जेब को कतरने वाला |
(ii) करण तत्पुरुष (तृतीया तत्पुरुष)-इसमें करण कारक की विभक्ति 'से', 'के द्वारा' का लोप हो जाता है। जैसे-
समस्त-पद | विग्रह |
---|---|
वाग्युद्ध | वाक् (से) युद्ध |
आचारकुशल | आचार (से) कुशल |
तुलसीकृत | तुलसी (से) कृत |
कपड़छना | कपड़े (से) छना हुआ |
मुँहमाँगा | मुँह (से) माँगा |
रसभरा | रस (से) भरा |
करुणागत | करुणा से पूर्ण |
भयाकुल | भय से आकुल |
रेखांकित | रेखा से अंकित |
शोकग्रस्त | शोक से ग्रस्त |
मदांध | मद से अंधा |
मनचाहा | मन से चाहा |
सूररचित | सूर द्वारा रचित |
(iii)सम्प्रदान तत्पुरुष (चतुर्थी तत्पुरुष)-इसमें संप्रदान कारक की विभक्ति 'के लिए' लुप्त हो जाती है। जैसे-
समस्त-पद | विग्रह |
---|---|
देशभक्ति | देश (के लिए) भक्ति |
विद्यालय | विद्या (के लिए) आलय |
रसोईघर | रसोई (के लिए) घर |
हथकड़ी | हाथ (के लिए) कड़ी |
राहखर्च | राह (के लिए) खर्च |
पुत्रशोक | पुत्र (के लिए) शोक |
स्नानघर | स्नान के लिए घर |
यज्ञशाला | यज्ञ के लिए शाला |
डाकगाड़ी | डाक के लिए गाड़ी |
गौशाला | गौ के लिए शाला |
सभाभवन | सभा के लिए भवन |
लोकहितकारी | लोक के लिए हितकारी |
देवालय | देव के लिए आलय |
(iv)अपादान तत्पुरुष (पंचमी तत्पुरुष)- इसमे अपादान कारक की विभक्ति 'से' (अलग होने का भाव) लुप्त हो जाती है। जैसे-
समस्त-पद | विग्रह |
---|---|
दूरागत | दूर से आगत |
जन्मान्ध | जन्म से अन्ध |
रणविमुख | रण से विमुख |
देशनिकाला | देश से निकाला |
कामचोर | काम से जी चुरानेवाला |
नेत्रहीन | नेत्र (से) हीन |
धनहीन | धन (से) हीन |
पापमुक्त | पाप से मुक्त |
जलहीन | जल से हीन |
(v)सम्बन्ध तत्पुरुष (षष्ठी तत्पुरुष)-इसमें संबंधकारक की विभक्ति 'का', 'के', 'की' लुप्त हो जाती है। जैसे-
समस्त-पद | विग्रह |
---|---|
विद्याभ्यास | विद्या का अभ्यास |
सेनापति | सेना का पति |
पराधीन | पर के अधीन |
राजदरबार | राजा का दरबार |
श्रमदान | श्रम (का) दान |
राजभवन | राजा (का) भवन |
राजपुत्र | राजा (का) पुत्र |
देशरक्षा | देश की रक्षा |
शिवालय | शिव का आलय |
गृहस्वामी | गृह का स्वामी |
(vi)अधिकरण तत्पुरुष (सप्तमी तत्पुरुष)-इसमें अधिकरण कारक की विभक्ति 'में', 'पर' लुप्त जो जाती है। जैसे-
समस्त-पद | विग्रह |
---|---|
विद्याभ्यास | विद्या का अभ्यास |
गृहप्रवेश | गृह में प्रवेश |
नरोत्तम | नरों (में) उत्तम |
पुरुषोत्तम | पुरुषों (में) उत्तम |
दानवीर | दान (में) वीर |
शोकमग्न | शोक में मग्न |
लोकप्रिय | लोक में प्रिय |
कलाश्रेष्ठ | कला में श्रेष्ठ |
आनंदमग्न | आनंद में मग्न |
(2)कर्मधारय समास:-जिस समस्त-पद का उत्तरपद प्रधान हो तथा पूर्वपद व उत्तरपद में उपमान-उपमेय अथवा विशेषण-विशेष्य संबंध हो, कर्मधारय समास कहलाता है।
दूसरे शब्दों में-कर्ता-तत्पुरुष को ही कर्मधारय कहते हैं।
दूसरे शब्दों में-कर्ता-तत्पुरुष को ही कर्मधारय कहते हैं।
पहचान: विग्रह करने पर दोनों पद के मध्य में 'है जो', 'के समान' आदि आते है।
जिस तत्पुरुष समास के समस्त होनेवाले पद समानाधिकरण हों, अर्थात विशेष्य-विशेषण-भाव को प्राप्त हों, कर्ताकारक के हों और लिंग-वचन में समान हों, वहाँ 'कर्मधारयतत्पुरुष समास होता है।
समस्त-पद | विग्रह |
---|---|
नवयुवक | नव है जो युवक |
पीतांबर | पीत है जो अंबर |
परमेश्र्वर | परम है जो ईश्र्वर |
नीलकमल | नील है जो कमल |
महात्मा | महान है जो आत्मा |
कनकलता | कनक की-सी लता |
प्राणप्रिय | प्राणों के समान प्रिय |
देहलता | देह रूपी लता |
लालमणि | लाल है जो मणि |
नीलकंठ | नीला है जो कंठ |
महादेव | महान है जो देव |
अधमरा | आधा है जो मरा |
परमानंद | परम है जो आनंद |
कर्मधारय तत्पुरुष के भेद
कर्मधारय तत्पुरुष के चार भेद है-
(i)विशेषणपूर्वपद
(ii) विशेष्यपूर्वपद
(iii) विशेषणोभयपद
(iv)विशेष्योभयपद
(i)विशेषणपूर्वपद
(ii) विशेष्यपूर्वपद
(iii) विशेषणोभयपद
(iv)विशेष्योभयपद
(i)विशेषणपूर्वपद :- इसमें पहला पद विशेषण होता है।
जैसे- पीत अम्बर= पीताम्बर
परम ईश्वर= परमेश्वर
नीली गाय= नीलगाय
प्रिय सखा= प्रियसखा
जैसे- पीत अम्बर= पीताम्बर
परम ईश्वर= परमेश्वर
नीली गाय= नीलगाय
प्रिय सखा= प्रियसखा
(ii) विशेष्यपूर्वपद :- इसमें पहला पद विशेष्य होता है और इस प्रकार के सामासिक पद अधिकतर संस्कृत में मिलते है।
जैसे- कुमारी (क्वाँरी लड़की)
श्रमणा (संन्यास ग्रहण की हुई )=कुमारश्रमणा।
जैसे- कुमारी (क्वाँरी लड़की)
श्रमणा (संन्यास ग्रहण की हुई )=कुमारश्रमणा।
(iii) विशेषणोभयपद :-इसमें दोनों पद विशेषण होते है।
जैसे- नील-पीत (नीला-पी-ला ); शीतोष्ण (ठण्डा-गरम ); लालपिला; भलाबुरा; दोचार कृताकृत (किया-बेकिया, अर्थात अधूरा छोड़ दिया गया); सुनी-अनसुनी; कहनी-अनकहनी।
जैसे- नील-पीत (नीला-पी-ला ); शीतोष्ण (ठण्डा-गरम ); लालपिला; भलाबुरा; दोचार कृताकृत (किया-बेकिया, अर्थात अधूरा छोड़ दिया गया); सुनी-अनसुनी; कहनी-अनकहनी।
(iv)विशेष्योभयपद:- इसमें दोनों पद विशेष्य होते है।
जैसे- आमगाछ या आम्रवृक्ष, वायस-दम्पति।
जैसे- आमगाछ या आम्रवृक्ष, वायस-दम्पति।
कर्मधारयतत्पुरुष समास के उपभेद
कर्मधारयतत्पुरुष समास के अन्य उपभेद हैं- (i) उपमानकर्मधारय (ii) उपमितकर्मधारय (iii) रूपककर्मधारय
जिससे किसी की उपमा दी जाये, उसे 'उपमान' और जिसकी उपमा दी जाये, उसे 'उपमेय' कहा जाता है। घन की तरह श्याम =घनश्याम- यहाँ 'घन' उपमान है और 'श्याम' उपमेय।
(i) उपमानकर्मधारय- इसमें उपमानवाचक पद का उपमेयवाचक पद के साथ समास होता हैं। इस समास में दोनों शब्दों के बीच से 'इव' या 'जैसा' अव्यय का लोप हो जाता है और दोनों ही पद, चूँकि एक ही कर्ताविभक्ति, वचन और लिंग के होते है, इसलिए समस्त पद कर्मधारय-लक्षण का होता है। अन्य उदाहरण- विद्युत्-जैसी चंचला =विद्युच्चंचला।
(ii) उपमितकर्मधारय- यह उपमानकर्मधारय का उल्टा होता है, अर्थात इसमें उपमेय पहला पद होता है और उपमान दूसरा। जैसे- अधरपल्लव के समान = अधर-पल्लव; नर सिंह के समान =नरसिंह।
किन्तु, जहाँ उपमितकर्मधारय- जैसा 'नर सिंह के समान' या 'अधर पल्लव के समान' विग्रह न कर अगर 'नर ही सिंह या 'अधर ही पल्लव'- जैसा विग्रह किया जाये, अर्थात उपमान-उपमेय की तुलना न कर उपमेय को ही उपमान कर दिया जाय-
दूसरे शब्दों में, जहाँ एक का दूसरे पर आरोप कर दिया जाये, वहाँ रूपककर्मधारय होगा। उपमितकर्मधारय और रूपककर्मधारय में विग्रह का यही अन्तर है। रूपककर्मधारय के अन्य उदाहरण- मुख ही है चन्द्र = मुखचन्द्र; विद्या ही है रत्न = विद्यारत्न भाष्य (व्याख्या) ही है अब्धि (समुद्र)= भाष्याब्धि।
दूसरे शब्दों में, जहाँ एक का दूसरे पर आरोप कर दिया जाये, वहाँ रूपककर्मधारय होगा। उपमितकर्मधारय और रूपककर्मधारय में विग्रह का यही अन्तर है। रूपककर्मधारय के अन्य उदाहरण- मुख ही है चन्द्र = मुखचन्द्र; विद्या ही है रत्न = विद्यारत्न भाष्य (व्याख्या) ही है अब्धि (समुद्र)= भाष्याब्धि।
(3)द्विगु समास:-जिस समस्त-पद का पूर्वपद संख्यावाचक विशेषण हो, वह द्विगु कर्मधारय समास कहलाता है।
जैसे-
जैसे-
समस्त-पद | विग्रह |
---|---|
सप्तसिंधु | सात सिंधुओं का समूह |
दोपहर | दो पहरों का समूह |
त्रिलोक | तीनों लोको का समाहार |
तिरंगा | तीन रंगों का समूह |
दुअत्री | दो आनों का समाहार |
द्विगु के भेद
इसके दो भेद होते है- (i)समाहारद्विगु और (ii)उत्तरपदप्रधानद्विगु।
(i)समाहारद्विगु :- समाहार का अर्थ है 'समुदाय' 'इकट्ठा होना' 'समेटना'।
जैसे- तीनों लोकों का समाहार= त्रिलोक
पाँचों वटों का समाहार= पंचवटी
पाँच सेरों का समाहार= पसेरी
तीनो भुवनों का समाहार= त्रिभुवन
जैसे- तीनों लोकों का समाहार= त्रिलोक
पाँचों वटों का समाहार= पंचवटी
पाँच सेरों का समाहार= पसेरी
तीनो भुवनों का समाहार= त्रिभुवन
(ii)उत्तरपदप्रधानद्विगु:-उत् तरपदप्रधान द्विगु के दो प्रकार है-(a) बेटा या उत्पत्र के अर्थ में; जैसे -दो माँ का- द्वैमातुर या दुमाता; दो सूतों के मेल का- दुसूती; (b) जहाँ सचमुच ही उत्तरपद पर जोर हो; जैसे- पाँच प्रमाण (नाम) =पंचप्रमाण; पाँच हत्थड़ (हैण्डिल)= पँचहत्थड़।
द्रष्टव्य- अनेक बहुव्रीहि समासों में भी पूर्वपद संख्यावाचक होता है। ऐसी हालत में विग्रह से ही जाना जा सकता है कि समास बहुव्रीहि है या द्विगु। यदि 'पाँच हत्थड़ है जिसमें वह =पँचहत्थड़' विग्रह करें, तो यह बहुव्रीहि है और 'पाँच हत्थड़' विग्रह करें, तो द्विगु।
तत्पुरुष समास के इन सभी प्रकारों में ये विशेषताएँ पायी जाती हैं-
(i) यह समास दो पदों के बीच होता है।
(ii) इसके समस्त पद का लिंग उत्तरपद के अनुसार हैं।
(iii) इस समास में उत्तरपद का ही अर्थ प्रधान होता हैं।
(i) यह समास दो पदों के बीच होता है।
(ii) इसके समस्त पद का लिंग उत्तरपद के अनुसार हैं।
(iii) इस समास में उत्तरपद का ही अर्थ प्रधान होता हैं।
(4)बहुव्रीहि समास:- समास में आये पदों को छोड़कर जब किसी अन्य पदार्थ की प्रधानता हो, तब उसे बहुव्रीहि समास कहते है।
जैसे- दशानन- दस मुहवाला- रावण।
जैसे- दशानन- दस मुहवाला- रावण।
जिस समस्त-पद में कोई पद प्रधान नहीं होता, दोनों पद मिल कर किसी तीसरे पद की ओर संकेत करते है, उसमें बहुव्रीहि समास होता है। 'नीलकंठ', नीला है कंठ जिसका अर्थात शिव। यहाँ पर दोनों पदों ने मिल कर एक तीसरे पद 'शिव' का संकेत किया, इसलिए यह बहुव्रीहि समास है।
इस समास के समासगत पदों में कोई भी प्रधान नहीं होता, बल्कि पूरा समस्तपद ही किसी अन्य पद का विशेषण होता है।
समस्त-पद | विग्रह |
---|---|
प्रधानमंत्री | मंत्रियो में प्रधान है जो (प्रधानमंत्री) |
पंकज | (पंक में पैदा हो जो (कमल) |
अनहोनी | न होने वाली घटना (कोई विशेष घटना) |
निशाचर | निशा में विचरण करने वाला (राक्षस) |
चौलड़ी | चार है लड़ियाँ जिसमे (माला) |
विषधर | (विष को धारण करने वाला (सर्प) |
तत्पुरुष और बहुव्रीहि में अन्तर- तत्पुरुष और बहुव्रीहि में यह भेद है कि तत्पुरुष में प्रथम पद द्वितीय पद का विशेषण होता है, जबकि बहुव्रीहि में प्रथम और द्वितीय दोनों पद मिलकर अपने से अलग किसी तीसरे के विशेषण होते है।
जैसे- 'पीत अम्बर =पीताम्बर (पीला कपड़ा )' कर्मधारय तत्पुरुष है तो 'पीत है अम्बर जिसका वह- पीताम्बर (विष्णु)' बहुव्रीहि। इस प्रकार, यह विग्रह के अन्तर से ही समझा जा सकता है कि कौन तत्पुरुष है और कौन बहुव्रीहि। विग्रह के अन्तर होने से समास का और उसके साथ ही अर्थ का भी अन्तर हो जाता है। 'पीताम्बर' का तत्पुरुष में विग्रह करने पर 'पीला कपड़ा' और बहुव्रीहि में विग्रह करने पर 'विष्णु' अर्थ होता है।
जैसे- 'पीत अम्बर =पीताम्बर (पीला कपड़ा )' कर्मधारय तत्पुरुष है तो 'पीत है अम्बर जिसका वह- पीताम्बर (विष्णु)' बहुव्रीहि। इस प्रकार, यह विग्रह के अन्तर से ही समझा जा सकता है कि कौन तत्पुरुष है और कौन बहुव्रीहि। विग्रह के अन्तर होने से समास का और उसके साथ ही अर्थ का भी अन्तर हो जाता है। 'पीताम्बर' का तत्पुरुष में विग्रह करने पर 'पीला कपड़ा' और बहुव्रीहि में विग्रह करने पर 'विष्णु' अर्थ होता है।
बहुव्रीहि समास के भेद
बहुव्रीहि समास के चार भेद है-
(i) समानाधिकरणबहुव्रीहि
(ii) व्यधिकरणबहुव्रीहि
(iii) तुल्ययोगबहुव्रीहि
(iv)व्यतिहारबहुव्रीहि
(i) समानाधिकरणबहुव्रीहि
(ii) व्यधिकरणबहुव्रीहि
(iii) तुल्ययोगबहुव्रीहि
(iv)व्यतिहारबहुव्रीहि
(i) समानाधिकरणबहुव्रीहि :- इसमें सभी पद प्रथमा, अर्थात कर्ताकारक की विभक्ति के होते है; किन्तु समस्तपद द्वारा जो अन्य उक्त होता है, वह कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान, सम्बन्ध, अधिकरण आदि विभक्ति-रूपों में भी उक्त हो सकता है।
जैसे- प्राप्त है उदक जिसको =प्राप्तोदक (कर्म में उक्त);
जीती गयी इन्द्रियाँ है जिसके द्वारा =जितेन्द्रिय (करण में उक्त);
दत्त है भोजन जिसके लिए =दत्तभोजन (सम्प्रदान में उक्त);
निर्गत है धन जिससे =निर्धन (अपादान में उक्त);
पीत है अम्बर जिसका =पीताम्बर;
मीठी है बोली जिसकी =मिठबोला;
नेक है नाम जिसका =नेकनाम (सम्बन्ध में उक्त);
चार है लड़ियाँ जिसमें =चौलड़ी;
सात है खण्ड जिसमें =सतखण्डा (अधिकरण में उक्त)।
जीती गयी इन्द्रियाँ है जिसके द्वारा =जितेन्द्रिय (करण में उक्त);
दत्त है भोजन जिसके लिए =दत्तभोजन (सम्प्रदान में उक्त);
निर्गत है धन जिससे =निर्धन (अपादान में उक्त);
पीत है अम्बर जिसका =पीताम्बर;
मीठी है बोली जिसकी =मिठबोला;
नेक है नाम जिसका =नेकनाम (सम्बन्ध में उक्त);
चार है लड़ियाँ जिसमें =चौलड़ी;
सात है खण्ड जिसमें =सतखण्डा (अधिकरण में उक्त)।
(ii) व्यधिकरणबहुव्रीहि :-समानाधिकरण में जहाँ दोनों पद प्रथमा या कर्ताकारक की विभक्ति के होते है, वहाँ पहला पद तो प्रथमा विभक्ति या कर्ताकारक की विभक्ति के रूप का ही होता है, जबकि बादवाला पद सम्बन्ध या अधिकरण कारक का हुआ करता है। जैसे- शूल है पाणि (हाथ) में जिसके =शूलपाणि;
वीणा है पाणि में जिसके =वीणापाणि।
वीणा है पाणि में जिसके =वीणापाणि।
(iii) तुल्ययोगबहुव्रीहिु:--जिसमें पहला पद 'सह' हो, वह तुल्ययोगबहुव्रीहि या सहबहुव्रीहि कहलाता है।
'सह' का अर्थ है 'साथ' और समास होने पर 'सह' की जगह केवल 'स' रह जाता है। इस समास में यह ध्यान देने की बात है कि विग्रह करते समय जो 'सह' (साथ) बादवाला या दूसरा शब्द प्रतीत होता है, वह समास में पहला हो जाता है।
जैसे- जो बल के साथ है, वह=सबल; जो देह के साथ है, वह सदेह; जो परिवार के साथ है, वह सपरिवार; जो चेत (होश) के साथ है, वह =सचेत।
'सह' का अर्थ है 'साथ' और समास होने पर 'सह' की जगह केवल 'स' रह जाता है। इस समास में यह ध्यान देने की बात है कि विग्रह करते समय जो 'सह' (साथ) बादवाला या दूसरा शब्द प्रतीत होता है, वह समास में पहला हो जाता है।
जैसे- जो बल के साथ है, वह=सबल; जो देह के साथ है, वह सदेह; जो परिवार के साथ है, वह सपरिवार; जो चेत (होश) के साथ है, वह =सचेत।
(iv)व्यतिहारबहुव्रीहि:-जिससे घात-प्रतिघात सूचित हो, उसे व्यतिहारबहुव्रीहि कहा जाता है।
इ समास के विग्रह से यह प्रतीत होता है कि 'इस चीज से और इस या उस चीज से जो लड़ाई हुई'।
जैसे- मुक्के-मुक्के से जो लड़ाई हुई =मुक्का-मुक्की; घूँसे-घूँसे से जो लड़ाई हुई =घूँसाघूँसी; बातों-बातों से जो लड़ाई हुई =बाताबाती। इसी प्रकार, खींचातानी, कहासुनी, मारामारी, डण्डाडण्डी, लाठालाठी आदि।
इ समास के विग्रह से यह प्रतीत होता है कि 'इस चीज से और इस या उस चीज से जो लड़ाई हुई'।
जैसे- मुक्के-मुक्के से जो लड़ाई हुई =मुक्का-मुक्की; घूँसे-घूँसे से जो लड़ाई हुई =घूँसाघूँसी; बातों-बातों से जो लड़ाई हुई =बाताबाती। इसी प्रकार, खींचातानी, कहासुनी, मारामारी, डण्डाडण्डी, लाठालाठी आदि।
इन चार प्रमुख जातियों के बहुव्रीहि समास के अतिरिक्त इस समास का एक प्रकार और है। जैसे-
प्रादिबहुव्रीहि- जिस बहुव्रीहि का पूर्वपद उपसर्ग हो, वह प्रादिबहुव्रीहि कहलाता है। जैसे- कुत्सित है रूप जिसका = कुरूप; नहीं है रहम जिसमें = बेरहम; नहीं है जन जहाँ = निर्जन।
तत्पुरुष के भेदों में भी 'प्रादि' एक भेद है, किन्तु उसके दोनों पदों का विग्रह विशेषण-विशेष्य-पदों की तरह होगा, न कि बहुव्रीहि के ढंग पर, अन्य पद की प्रधानता की तरह। जैसे- अति वृष्टि= अतिवृष्टि (प्रादितत्पुरुष) ।
द्रष्टव्य- (i) बहुव्रीहि के समस्त पद में दूसरा पद 'धर्म' या 'धनु' हो, तो वह आकारान्त हो जाता है; जैसे- प्रिय है धर्म जिसका = प्रियधर्मा; सुन्दर है धर्म जिसका = सुधर्मा; आलोक ही है धनु जिसका = आलोकधन्वा।
(ii) सकारान्त में विकल्प से 'आ' और 'क' किन्तु ईकारान्त, उकारान्त और ऋकारान्त समासान्त पदों के अन्त में निश्र्चितरूप से 'क' लग जाता है। जैसे- उदार है मन जिसका = उदारमनस, उदारमना या उदारमनस्क; अन्य में है मन जिसका = अन्यमना या अन्यमनस्क; ईश्र्वर है कर्ता जिसका = ईश्र्वरकर्तृक; साथ है पति जिसके; सप्तीक; बिना है पति के जो = विप्तीक।
(ii) सकारान्त में विकल्प से 'आ' और 'क' किन्तु ईकारान्त, उकारान्त और ऋकारान्त समासान्त पदों के अन्त में निश्र्चितरूप से 'क' लग जाता है। जैसे- उदार है मन जिसका = उदारमनस, उदारमना या उदारमनस्क; अन्य में है मन जिसका = अन्यमना या अन्यमनस्क; ईश्र्वर है कर्ता जिसका = ईश्र्वरकर्तृक; साथ है पति जिसके; सप्तीक; बिना है पति के जो = विप्तीक।
बहुव्रीहि समास की विशेषताएँ
बहुव्रीहि समास की निम्नलिखित विशेषताएँ है-
(i) यह दो या दो से अधिक पदों का समास होता है।
(ii)इसका विग्रह शब्दात्मक या पदात्मक न होकर वाक्यात्मक होता है।
(iii)इसमें अधिकतर पूर्वपद कर्ता कारक का होता है या विशेषण।
(iv)इस समास से बने पद विशेषण होते है। अतः उनका लिंग विशेष्य के अनुसार होता है।
(v) इसमें अन्य पदार्थ प्रधान होता है।
(ii)इसका विग्रह शब्दात्मक या पदात्मक न होकर वाक्यात्मक होता है।
(iii)इसमें अधिकतर पूर्वपद कर्ता कारक का होता है या विशेषण।
(iv)इस समास से बने पद विशेषण होते है। अतः उनका लिंग विशेष्य के अनुसार होता है।
(v) इसमें अन्य पदार्थ प्रधान होता है।
(5)द्वन्द्व समास :- जिस समस्त-पद के दोनों पद प्रधान हो तथा विग्रह करने पर 'और', 'अथवा', 'या', 'एवं' लगता हो वह द्वन्द्व समास कहलाता है।
पहचान : दोनों पदों के बीच प्रायः योजक चिह्न (Hyphen (-) का प्रयोग होता है।
द्वन्द्व समास में सभी पद प्रधान होते है। द्वन्द्व और तत्पुरुष से बने पदों का लिंग अन्तिम शब्द के अनुसार होता है।
द्वन्द्व समास के भेद
द्वन्द्व समास के तीन भेद है-
(i) इतरेतर द्वन्द्व
(ii) समाहार द्वन्द्व
(iii) वैकल्पिक द्वन्द्व
(i) इतरेतर द्वन्द्व
(ii) समाहार द्वन्द्व
(iii) वैकल्पिक द्वन्द्व
(i) इतरेतर द्वन्द्व-: वह द्वन्द्व, जिसमें 'और' से सभी पद जुड़े हुए हो और पृथक् अस्तित्व रखते हों, 'इतरेतर द्वन्द्व' कहलता है।
इस समास से बने पद हमेशा बहुवचन में प्रयुक्त होते है; क्योंकि वे दो या दो से अधिक पदों के मेल से बने होते है।
जैसे- राम और कृष्ण =राम-कृष्ण, ऋषि और मुनि =ऋषि-मुनि, गाय और बैल =गाय-बैल, भाई और बहन =भाई-बहन, माँ और बाप =माँ-बाप, बेटा और बेटी =बेटा-बेटी इत्यादि।
यहाँ ध्यान रखना चाहिए कि इतरेतर द्वन्द्व में दोनों पद न केवल प्रधान होते है, बल्कि अपना अलग-अलग अस्तित्व भी रखते है।
जैसे- राम और कृष्ण =राम-कृष्ण, ऋषि और मुनि =ऋषि-मुनि, गाय और बैल =गाय-बैल, भाई और बहन =भाई-बहन, माँ और बाप =माँ-बाप, बेटा और बेटी =बेटा-बेटी इत्यादि।
यहाँ ध्यान रखना चाहिए कि इतरेतर द्वन्द्व में दोनों पद न केवल प्रधान होते है, बल्कि अपना अलग-अलग अस्तित्व भी रखते है।
(ii) समाहार द्वन्द्व-समाहार का अर्थ है समष्टि या समूह। जब द्वन्द्व समास के दोनों पद और समुच्चयबोधक से जुड़े होने पर भी पृथक-पृथक अस्तित्व न रखें, बल्कि समूह का बोध करायें, तब वह समाहार द्वन्द्व कहलाता है।
समाहार द्वन्द्व में दोनों पदों के अतिरिक्त अन्य पद भी छिपे रहते है और अपने अर्थ का बोध अप्रत्यक्ष रूप से कराते है।
जैसे- आहारनिद्रा =आहार और निद्रा (केवल आहार और निद्रा ही नहीं, बल्कि इसी तरह की और बातें भी); दालरोटी=दाल और रोटी (अर्थात भोजन के सभी मुख्य पदार्थ); हाथपाँव =हाथ और पाँव (अर्थात हाथ और पाँव तथा शरीर के दूसरे अंग भी )। इसी तरह नोन-तेल, कुरता-टोपी, साँप-बिच्छू, खाना-पीना इत्यादि।
जैसे- आहारनिद्रा =आहार और निद्रा (केवल आहार और निद्रा ही नहीं, बल्कि इसी तरह की और बातें भी); दालरोटी=दाल और रोटी (अर्थात भोजन के सभी मुख्य पदार्थ); हाथपाँव =हाथ और पाँव (अर्थात हाथ और पाँव तथा शरीर के दूसरे अंग भी )। इसी तरह नोन-तेल, कुरता-टोपी, साँप-बिच्छू, खाना-पीना इत्यादि।
कभी-कभी विपरीत अर्थवाले या सदा विरोध रखनेवाले पदों का भी योग हो जाता है। जैसे- चढ़ा-ऊपरी, लेन-देन, आगा-पीछा, चूहा-बिल्ली इत्यादि।
जब दो विशेषण-पदों का संज्ञा के अर्थ में समास हो, तो समाहार द्वन्द्व होता है।
जैसे- लंगड़ा-लूला, भूखा-प्यास, अन्धा-बहरा इत्यादि।
उदाहरण- लँगड़े-लूले यह काम नहीं क्र सकते; भूखे-प्यासे को निराश नहीं करना चाहिए; इस गाँव में बहुत-से अन्धे-बहरे है।
जैसे- लंगड़ा-लूला, भूखा-प्यास, अन्धा-बहरा इत्यादि।
उदाहरण- लँगड़े-लूले यह काम नहीं क्र सकते; भूखे-प्यासे को निराश नहीं करना चाहिए; इस गाँव में बहुत-से अन्धे-बहरे है।
द्रष्टव्य- यहाँ यह ध्यान रखना चाहिए कि जब दोनों पद विशेषण हों और विशेषण के ही अर्थ में आयें तब वहाँ द्वन्द्व समास नहीं होता, वहाँ कर्मधारय समास हो जाता है। जैसे- लँगड़ा-लूला आदमी यह काम नहीं कर सकता; भूखा-प्यासा लड़का सो गया; इस गाँव में बहुत-से लोग अन्धे-बहरे हैं- इन प्रयोगों में 'लँगड़ा-लूला', 'भूखा-प्यासा' और 'अन्धा-बहरा' द्वन्द्व समास नहीं हैं।
(iii) वैकल्पिक द्वन्द्व:-जिस द्वन्द्व समास में दो पदों के बीच 'या', 'अथवा' आदि विकल्पसूचक अव्यय छिपे हों, उसे वैकल्पिक द्वन्द्व कहते है।
इस समास में बहुधा दो विपरीतार्थक शब्दों का योग रहता है। जैसे- पाप-पुण्य, धर्माधर्म, भला-बुरा, थोड़ा-बहुत इत्यादि। यहाँ 'पाप-पुण्य' का अर्थ 'पाप' और 'पुण्य' भी प्रसंगानुसार हो सकता है।
(6) अव्ययीभाव समास:- अव्ययीभाव का लक्षण है- जिसमे पूर्वपद की प्रधानता हो और सामासिक या समास पद अव्यय हो जाय, उसे अव्ययीभाव समास कहते है।
सरल शब्दो में- जिस समास का पहला पद (पूर्वपद) अव्यय तथा प्रधान हो, उसे अव्ययीभाव समास कहते है।
सरल शब्दो में- जिस समास का पहला पद (पूर्वपद) अव्यय तथा प्रधान हो, उसे अव्ययीभाव समास कहते है।
इस समास में समूचा पद क्रियाविशेषण अव्यय हो जाता है। इसमें पहला पद उपसर्ग आदि जाति का अव्यय होता है और वही प्रधान होता है। जैसे- प्रतिदिन, यथासम्भव, यथाशक्ति, बेकाम, भरसक इत्यादि।
पहचान : पहला पद अनु, आ, प्रति, भर, यथा, यावत, हर आदि होता है।
अव्ययीभाववाले पदों का विग्रह- ऐसे समस्तपदों को तोड़ने में, अर्थात उनका विग्रह करने में हिन्दी में बड़ी कठिनाई होती है, विशेषतः संस्कृत के समस्त पदों का विग्रह करने में हिन्दी में जिन समस्त पदों में द्विरुक्तिमात्र होती है, वहाँ विग्रह करने में केवल दोनों पदों को अलग कर दिया जाता है।
जैसे- (संस्कृत) प्रतिदिन- दिन-दिन
यथाविधि- विधि के अनुसार; यथाक्रम- क्रम के अनुसार; यथाशक्ति- शक्ति के अनुसार; आजन्म- जन्म तक
जैसे- (संस्कृत) प्रतिदिन- दिन-दिन
यथाविधि- विधि के अनुसार; यथाक्रम- क्रम के अनुसार; यथाशक्ति- शक्ति के अनुसार; आजन्म- जन्म तक
पूर्वपद-अव्यय | + | उत्तरपद | = | समस्त-पद | विग्रह |
---|---|---|---|---|---|
प्रति | + | दिन | = | प्रतिदिन | प्रत्येक दिन |
आ | + | जन्म | = | आजन्म | जन्म से लेकर |
यथा | + | संभव | = | यथासंभव | जैसा संभव हो |
अनु | + | रूप | = | अनुरूप | रूप के योग्य |
भर | + | पेट | = | भरपेट | पेट भर के |
हाथ | + | हाथ | = | हाथों-हाथ | हाथ ही हाथ में |
(7)नत्र समास:- इसमे नहीं का बोध होता है। जैसे - अनपढ़, अनजान , अज्ञान ।
समस्त-पद | विग्रह |
---|---|
अनाचार | न आचार |
अनदेखा | न देखा हुआ |
अन्याय | न न्याय |
अनभिज्ञ | न अभिज्ञ |
नालायक | नहीं लायक |
अचल | न चल |
नास्तिक | न आस्तिक |
अनुचित | न उचित |
समास-सम्बन्धी कुछ विशेष बातें-
(1)एक समस्त पद में एक से अधिक प्रकार के समास हो सकते है। यह विग्रह करने पर स्पष्ट होता है। जिस समास के अनुसार विग्रह होगा, वही समास उस पद में माना जायेगा।
जैसे- पीताम्बर- (i) पीत है जो अम्बर (कर्मधारय), (ii)पीत है अम्बर जिसका (बहुव्रीहि); निडर- बिना डर का (अव्ययीभाव ); नहीं है डर जिसे (प्रादि का नञ बहुव्रीहि); सुरूप - सुन्दर है जो रूप (कर्मधारय), सुन्दर है रूप जिसका (बहुव्रीहि); चन्द्रमुख- चन्द्र के समान मुख (कर्मधारय); बुद्धिबल- बुद्धि ही है बल (कर्मधारय);
जैसे- पीताम्बर- (i) पीत है जो अम्बर (कर्मधारय), (ii)पीत है अम्बर जिसका (बहुव्रीहि); निडर- बिना डर का (अव्ययीभाव ); नहीं है डर जिसे (प्रादि का नञ बहुव्रीहि); सुरूप - सुन्दर है जो रूप (कर्मधारय), सुन्दर है रूप जिसका (बहुव्रीहि); चन्द्रमुख- चन्द्र के समान मुख (कर्मधारय); बुद्धिबल- बुद्धि ही है बल (कर्मधारय);
(2) समासों का विग्रह करते समय यह ध्यान रखना चाहिए कि यथासम्भव समास में आये पदों के अनुसार ही विग्रह हो।
जैसे- पीताम्बर का विग्रह- 'पीत है जो अम्बर' अथवा 'पीत है अम्बर जिसका' ऐसा होना चाहिए। बहुधा संस्कृत के समासों, विशेषकर अव्ययीभाव, बहुव्रीहि और उपपद समासों का विग्रह हिन्दी के अनुसार करने में कठिनाई होती है। ऐसे स्थानों पर हिन्दी के शब्दों से सहायता ली जा सकती है। जैसे- कुम्भकार =कुम्भ को बनानेवाला; खग=आकाश में जानेवाला; आमरण =मरण तक; व्यर्थ =बिना अर्थ का; विमल=मल से रहित; इत्यादि।
जैसे- पीताम्बर का विग्रह- 'पीत है जो अम्बर' अथवा 'पीत है अम्बर जिसका' ऐसा होना चाहिए। बहुधा संस्कृत के समासों, विशेषकर अव्ययीभाव, बहुव्रीहि और उपपद समासों का विग्रह हिन्दी के अनुसार करने में कठिनाई होती है। ऐसे स्थानों पर हिन्दी के शब्दों से सहायता ली जा सकती है। जैसे- कुम्भकार =कुम्भ को बनानेवाला; खग=आकाश में जानेवाला; आमरण =मरण तक; व्यर्थ =बिना अर्थ का; विमल=मल से रहित; इत्यादि।
(3)अव्ययीभाव समास में दो ही पद होते है। बहुव्रीहि में भी साधारणतः दो ही पद रहते है। तत्पुरुष में दो से अधिक पद हो सकते है और द्वन्द्व में तो सभी समासों से अधिक पद रह सकते है।
जैसे- नोन-तेल-लकड़ी, आम-जामुन-कटहल-कचनार इत्यादि (द्वन्द्व)।
जैसे- नोन-तेल-लकड़ी, आम-जामुन-कटहल-कचनार इत्यादि (द्वन्द्व)।
(4)यदि एक समस्त पद में अनेक समासवाले पदों का मेल हो तो अलग-अलग या एक साथ भी विग्रह किया जा सकता है।
जैसे- चक्रपाणिदर्शनार्थ-चक्र है पाणि में जिसके= चक्रपाणि (बहुव्रीहि); दर्शन के अर्थ =दर्शनार्थ (अव्ययीभाव ); चक्रपाणि के दर्शनार्थ =चक्रपाणिदर्शनार्थ (अव्ययीभाव ) । समूचा पद क्रियाविशेषण अव्यय है, इसलिए अव्ययीभाव है।
जैसे- चक्रपाणिदर्शनार्थ-चक्र है पाणि में जिसके= चक्रपाणि (बहुव्रीहि); दर्शन के अर्थ =दर्शनार्थ (अव्ययीभाव ); चक्रपाणि के दर्शनार्थ =चक्रपाणिदर्शनार्थ (अव्ययीभाव ) । समूचा पद क्रियाविशेषण अव्यय है, इसलिए अव्ययीभाव है।
प्रयोग की दृष्टि से समास के भेद-
प्रयोग की दृष्टि से समास के तीन भेद किये जा सकते है-
(1)संयोगमूलक समास
(2)आश्रयमूलक समास
(3)वर्णनमूलक समास
(1)संयोगमूलक समास
(2)आश्रयमूलक समास
(3)वर्णनमूलक समास
(1)संज्ञा-समास :- संयोगमूलक समास को संज्ञा-समास कहते है। इस प्रकार के समास में दोनों पद संज्ञा होते है।
दूसरे शब्दों में, इसमें दो संज्ञाओं का संयोग होता है।
जैसे- माँ-बाप, भाई-बहन, माँ-बेटी, सास-पतोहू, दिन-रात, रोटी-बेटी, माता-पिता, दही-बड़ा, दूध-दही, थाना-पुलिस, सूर्य-चन्द्र इत्यादि।
दूसरे शब्दों में, इसमें दो संज्ञाओं का संयोग होता है।
जैसे- माँ-बाप, भाई-बहन, माँ-बेटी, सास-पतोहू, दिन-रात, रोटी-बेटी, माता-पिता, दही-बड़ा, दूध-दही, थाना-पुलिस, सूर्य-चन्द्र इत्यादि।
(2)विशेषण-समास:- यह आश्रयमूलक समास है। यह प्रायः कर्मधारय समास होता है। इस समास में प्रथम पद विशेषण होता है, किन्तु द्वितीय पद का अर्थ बलवान होता है। कर्मधारय का अर्थ है कर्म अथवा वृत्ति धारण करनेवाला। यह विशेषण-विशेष्य, विशेष्य-विशेषण, विशेषण तथा विशेष्य पदों द्वारा सम्पत्र होता है। जैसे-
(क) जहाँ पूर्वपद विशेषण हो; यथा- कच्चाकेला, शीशमहल, महरानी।
(ख)जहाँ उत्तरपद विशेषण हो; यथा- घनश्याम।
(ग़)जहाँ दोनों पद विशेषण हों; यथा- लाल-पीला, खट्टा-मीठा।
(घ) जहाँ दोनों पद विशेष्य हों; यथा- मौलवीसाहब, राजाबहादुर।
(ख)जहाँ उत्तरपद विशेषण हो; यथा- घनश्याम।
(ग़)जहाँ दोनों पद विशेषण हों; यथा- लाल-पीला, खट्टा-मीठा।
(घ) जहाँ दोनों पद विशेष्य हों; यथा- मौलवीसाहब, राजाबहादुर।
(3)अव्यय समास :- वर्णमूलक समास के अन्तर्गत बहुव्रीहि और अव्ययीभाव समास का निर्माण होता है। इस समास (अव्ययीभाव) में प्रथम पद साधारणतः अव्यय होता है और दूसरा पद संज्ञा। जैसे- यथाशक्ति, यथासाध्य, प्रतिमास, यथासम्भव, घड़ी-घड़ी, प्रत्येक, भरपेट, यथाशीघ्र इत्यादि।
सन्धि और समास में अन्तर
सन्धि और समास का अन्तर इस प्रकार है-
(i) समास में दो पदों का योग होता है; किन्तु सन्धि में दो वर्णो का।
(ii) समास में पदों के प्रत्यय समाप्त कर दिये जाते है। सन्धि के लिए दो वर्णों के मेल और विकार की गुंजाइश रहती है, जबकि समास को इस मेल या विकार से कोई मतलब नहीं।
(iii) सन्धि के तोड़ने को 'विच्छेद' कहते है, जबकि समास का 'विग्रह' होता है। जैसे- 'पीताम्बर' में दो पद है- 'पीत' और 'अम्बर' । सन्धिविच्छेद होगा- पीत+अम्बर;
जबकि समासविग्रह होगा- पीत है जो अम्बर या पीत है जिसका अम्बर = पीताम्बर। यहाँ ध्यान देने की बात है कि हिंदी में सन्धि केवल तत्सम पदों में होती है, जबकि समास संस्कृत तत्सम, हिन्दी, उर्दू हर प्रकार के पदों में। यही कारण है कि हिंदी पदों के समास में सन्धि आवश्यक नहीं है।
संधि में वर्णो के योग से वर्ण परिवर्तन भी होता है जबकि समास में ऐसा नहीं होता।
(i) समास में दो पदों का योग होता है; किन्तु सन्धि में दो वर्णो का।
(ii) समास में पदों के प्रत्यय समाप्त कर दिये जाते है। सन्धि के लिए दो वर्णों के मेल और विकार की गुंजाइश रहती है, जबकि समास को इस मेल या विकार से कोई मतलब नहीं।
(iii) सन्धि के तोड़ने को 'विच्छेद' कहते है, जबकि समास का 'विग्रह' होता है। जैसे- 'पीताम्बर' में दो पद है- 'पीत' और 'अम्बर' । सन्धिविच्छेद होगा- पीत+अम्बर;
जबकि समासविग्रह होगा- पीत है जो अम्बर या पीत है जिसका अम्बर = पीताम्बर। यहाँ ध्यान देने की बात है कि हिंदी में सन्धि केवल तत्सम पदों में होती है, जबकि समास संस्कृत तत्सम, हिन्दी, उर्दू हर प्रकार के पदों में। यही कारण है कि हिंदी पदों के समास में सन्धि आवश्यक नहीं है।
संधि में वर्णो के योग से वर्ण परिवर्तन भी होता है जबकि समास में ऐसा नहीं होता।
कर्मधारय और बहुव्रीहि समास में अंतर
इन दोनों समासों में अंतर समझने के लिए इनके विग्रह पर ध्यान देना चाहिए। कर्मधारय समास में एक पद विशेषण या उपमान होता है और दूसरा पद विशेष्य या उपमेय होता है। जैसे-'नीलगगन' में 'नील' विशेषण है तथा 'गगन' विशेष्य है। इसी तरह 'चरणकमल' में 'चरण' उपमेय है और 'कमल' उपमान है। अतः ये दोनों उदाहरण कर्मधारय समास के है।
बहुव्रीहि समास में समस्त पद ही किसी संज्ञा के विशेषण का कार्य करता है। जैसे- 'चक्रधर' चक्र को धारण करता है जो अर्थात 'श्रीकृष्ण' ।
नीलकंठ- नीला है जो कंठ- कर्मधारय समास।
नीलकंठ- नीला है कंठ जिसका अर्थात शिव- बहुव्रीहि समास।
लंबोदर- मोटे पेट वाला- कर्मधारय समास।
लंबोदर- लंबा है उदर जिसका अर्थात गणेश- बहुव्रीहि समास।
नीलकंठ- नीला है जो कंठ- कर्मधारय समास।
नीलकंठ- नीला है कंठ जिसका अर्थात शिव- बहुव्रीहि समास।
लंबोदर- मोटे पेट वाला- कर्मधारय समास।
लंबोदर- लंबा है उदर जिसका अर्थात गणेश- बहुव्रीहि समास।
द्विगु और बहुव्रीहि समास में अंतर
द्विगु समास का पहला पद संख्यावाचक विशेषण होता है और दूसरा पद विशेष्य होता है जबकि बहुव्रीहि समास में समस्त पद ही विशेषण का कार्य करता है। जैसे-
चतुर्भुज- चार भुजाओं का समूह- द्विगु समास।
चतुर्भुज- चार है भुजाएँ जिसकी अर्थात विष्णु- बहुव्रीहि समास।
पंचवटी- पाँच वटों का समाहार- द्विगु समास।
पंचवटी- पाँच वटों से घिरा एक निश्चित स्थल अर्थात दंडकारण्य में स्थित वह स्थान जहाँ वनवासी राम ने सीता और लक्ष्मण के साथ निवास किया- बहुव्रीहि समास।
दशानन- दस आननों का समूह- द्विगु समास।
दशानन- दस आनन हैं जिसके अर्थात रावण- बहुव्रीहि समास।
चतुर्भुज- चार भुजाओं का समूह- द्विगु समास।
चतुर्भुज- चार है भुजाएँ जिसकी अर्थात विष्णु- बहुव्रीहि समास।
पंचवटी- पाँच वटों का समाहार- द्विगु समास।
पंचवटी- पाँच वटों से घिरा एक निश्चित स्थल अर्थात दंडकारण्य में स्थित वह स्थान जहाँ वनवासी राम ने सीता और लक्ष्मण के साथ निवास किया- बहुव्रीहि समास।
दशानन- दस आननों का समूह- द्विगु समास।
दशानन- दस आनन हैं जिसके अर्थात रावण- बहुव्रीहि समास।
द्विगु और कर्मधारय में अंतर
(i) द्विगु का पहला पद हमेशा संख्यावाचक विशेषण होता है जो दूसरे पद की गिनती बताता है जबकि कर्मधारय का एक पद विशेषण होने पर भी संख्यावाचक कभी नहीं होता है।
(ii) द्विगु का पहला पद ही विशेषण बन कर प्रयोग में आता है जबकि कर्मधारय में कोई भी पद दूसरे पद का विशेषण हो सकता है। जैसे-
नवरत्न- नौ रत्नों का समूह- द्विगु समास
चतुर्वर्ण- चार वर्णो का समूह- द्विगु समास
पुरुषोत्तम- पुरुषों में जो है उत्तम- कर्मधारय समास
रक्तोत्पल- रक्त है जो उत्पल- कर्मधारय समास
(ii) द्विगु का पहला पद ही विशेषण बन कर प्रयोग में आता है जबकि कर्मधारय में कोई भी पद दूसरे पद का विशेषण हो सकता है। जैसे-
नवरत्न- नौ रत्नों का समूह- द्विगु समास
चतुर्वर्ण- चार वर्णो का समूह- द्विगु समास
पुरुषोत्तम- पुरुषों में जो है उत्तम- कर्मधारय समास
रक्तोत्पल- रक्त है जो उत्पल- कर्मधारय समास
सामासिक पदों की सूची
तत्पुरुष समास (कर्मतत्पुरुष)
पद | विग्रह | पद | विग्रह |
---|---|---|---|
गगनचुम्बी | गगन (को) चूमनेवाला | पाकिटमार | पाकिट (को) मारनेवाला |
चिड़ीमार | चिड़ियों (को) मारनेवाला | गृहागत | गृह को आगत |
कठखोदवा | काठ (को) खोदनेवाला | गिरहकट | गिरह (को) काटनेवाला |
मुँहतोड़ | मुँह (को) तोड़नेवाला | स्वर्गप्राप्त | स्वर्ग को प्राप्त |
अनुभव जन्य | अनुभव से जन्य | आपबीती | आप पर बीती (सप्तमी तत्पुरुष) |
उद्योगपति | उद्योग का पति (मालिक) | गुणहीन | गुणों से हीन |
घुड़दौड़ | घोड़ों की दौड़ | जन्मांध | जन्म से अंधा |
देशाटन | देश में अटन (भ्रमण) | दानवीर | दान में वीर |
देशवासी | देश का वासी | अमृतधारा | अमृत की धारा |
अछूतोद्धार | अछूतों का उद्धार | आत्मविश्वास | आत्मा पर विश्वास |
ऋषिकन्या | ऋषि की कन्या | कष्टसाध्य | कष्ट से होने वाला |
हरघड़ी | घड़ी-घड़ी या प्रत्येक घड़ी | गुरुदक्षिणा | गुरु के लिए दक्षिणा |
गृहप्रवेश | गृह में प्रवेश | गोबर गणेश | गोबर से बना गणेश |
दहीबड़ा | दही में डूबा हुआ बड़ा | अकाल पीड़ित | अकाल से पीड़ित |
गोशाला | गौओं के लिए शाला | गंगाजल | गंगा का जल |
घुड़सवार | घोड़े पर सवार | जीवनसाथी | जीवन का साथी |
जलधारा | जल की धारा | देशभक्ति | देश की भक्ति |
पूँजीपति | पूँजी का पति | भयभीत | भय से भीत (डरा) |
हस्तलिखित | हाथ से लिखित | पथभ्रष्ट | पथ से भ्रष्ट |
देशभक्त | देश का भक्त | चरित्रचित्रण | चरित्र का चित्रण |
दानवीर | दान देने में वीर (सप्तमी तत्पुरुष) | युधिष्ठिर | युद्ध में स्थिर |
पर्णशाला | पर्णनिर्मित शाला | पुरुषोत्तम | पुरुषों में उत्तम |
नराधम | नरों में अधम | नेत्रहीन | नेत्र से हीन |
राहखर्च | राह के लिए खर्च | शरणागत | शरण में आगत |
विद्यासागर | विद्या का सागर | आकशवाणी | आकाश से वाणी |
आनन्दाश्रम | आनन्द का आश्रम | आकशवाणी | आकाश से वाणी |
कर्महीन | कर्म से हीन (पंचमी तत्पुरुष) | कर्मनिरत | कर्म से निरत (सप्तमी तत्पुरुष) |
कविश्रेष्ठ | कवियों से श्रेष्ठ | कुम्भकार | कुम्भ को करने (बनाने)वाला (उपपद तत्पुरुष) |
काव्यकार | काव्य की रचना करनेवाला (उपपद तत्पुरुष) | कृषिप्रधान | कृषि में प्रधान(सप्तमी तत्पुरुष) |
क्षत्रियाधम | क्षत्रियों में अधम(सप्तमी तत्पुरुष) | कृष्णार्पण | कृष्ण के लिए अर्पण (चतुर्थी तत्पुरुष) |
ग्रामोद्धार | ग्राम का उद्धार (ष० तत्पुरुष) | गिरहकट | गिरह को काटनेवाला (द्वि तत्पुरुष) |
गृहस्थ | गृह में स्थित (उपपद तत्पुरुष) | चन्द्रोदय | चन्द्र का उदय (ष० तत्पुरुष) |
जीवनमुक्त | जीवन से मुक्त (ष० तत्पुरुष) | ठाकुरसुहाती | ठाकुर (मालिक) के लिए रुचिकर बातें |
तिलचट्टा | तिल को चाटनेवाला | दयासागर | दया का सागर |
दुखसंतप्त | दुःख से संतप्त | देशगत | देश को गया हुआ |
धनहीन | धन से हीन | धर्मविमुख | धर्म से विमुख |
नरोत्तम | नरों में उत्तम | पददलित | पद से दलित |
पदच्युत | पद से च्युत | परीक्षोपयोगी | परीक्षा के लिए उपयोगी |
पादप | पैर से पीनेवाला (उपपद तत्पुरुष) | पुत्रशोक | पुत्र के लिए शोक |
पुस्तकालय | पुस्तक के लिए आलय | मनमौजी | मन से मौजी |
मनगढ़न्त | मन से गढ़ा हुआ (तृ० तत्पुरुष) | मदमाता | मद से माता (तृ० तत्पुरुष) |
मालगोदाम | माल के लिए गोदाम | रसोईघर | रसोई के लिए घर |
रामायण | राम का अयन (ष० तत्पुरुष) | राजकन्या | राजा की कन्या (ष० तत्पुरुष) |
विद्यार्थी | विद्या का अर्थी (ष० तत्पुरुष) |
करणतत्पुरुष
पद | विग्रह | पद | विग्रह |
---|---|---|---|
प्रेमासिक्त | प्रेम से सिक्त | जलसिक्त | जल से सिक्त |
रसभरा | रस से भरा | मदमाता | मद से माता |
मेघाच्छत्र | मेघ से आच्छत्र | रोगपीड़ित | रोग से पीड़ित |
रोगग्रस्त | रोग से ग्रस्त | मुँहमाँगा | मुँह से माँगा |
दुःखार्त | दुःख से आर्त | मदान्ध | मद से अन्ध |
देहचोर | देह से चोर | पददलित | पद से दलित |
तुलसीकृत | तुलसी द्वारा कृत | दुःखसन्तप्त | दुःख से सन्तप्त |
शोकाकुल | शोक से आकुल | करुणापूर्ण | करुणा से पूर्ण |
अकालपीड़ित | अकाल से पीड़ित | शोकग्रस्त | शोक से ग्रस्त |
शोकार्त | शोक से आर्त | श्रमजीवी | श्रम से जीनेवाला |
कामचोर | काम से चोर | मुँहचोर | मुँह से चोर |
सम्प्रदान तत्पुरुष
पद | विग्रह | पद | विग्रह |
---|---|---|---|
शिवार्पण | शिव के लिए अर्पण | रसोईघर | रसोई के लिए घर |
सभाभवन | सभा के लिए भवन | लोकहितकारी | लोक के लिए हितकारी |
मार्गव्यय | मार्ग के लिए व्यय | स्नानघर | स्नान के लिए घर |
मालगोदाम | माल के लिए गोदाम | डाकमहसूल | डाक के लिए महसूल |
साधुदक्षिणा | साधु के लिए दक्षिणा | देशभक्ति | देश के लिए भक्ति |
पुत्रशोक | पुत्र के लिए शोक | ब्राह्मणदेय | ब्राह्मण के लिए देय |
राहखर्च | राह के लिए खर्च | गोशाला | गो के लिए शाला |
देवालय | देव के लिए आलय | विधानसभा | विधान के लिए सभा |
परीक्षा भवन | परीक्षा के लिए भवन | रसोईघर | रसोई के लिए घर |
अपादान तत्पुरुष
पद | विग्रह | पद | विग्रह |
---|---|---|---|
बलहीन | बल से हीन | धनहीन | धन से हीन |
पदभ्रष्ट | पद से भ्रष्ट | स्थानभ्रष्ट | स्थान से भ्रष्ट |
मायारिक्त | माया से रिक्त | पापमुक्त | पाप से मुक्त |
ऋणमुक्त | ऋण से मुक्त | ईश्र्वरविमुख | ईश्र्वर से विमुख |
स्थानच्युत | स्थान से च्युत | लोकोत्तर | लोक से उत्तर (परे) |
नेत्रहीन | नेत्र से हीन | शक्तिहीन | शक्ति से हीन |
पथभ्रष्ट | पथ से भ्रष्ट | जलरिक्त | जल से रिक्त |
प्रेमरिक्त | प्रेम से रिक्त | व्ययमुक्त | व्यय से मुक्त |
धर्मविमुख | धर्म से विमुख | पदच्युत | पद से च्युत |
धर्मच्युत | धर्म से च्युत | मरणोत्तर | मरण से उत्तर |
देश निकाला | देश से निकाला | जन्मांध | जन्म से अंधा |
सम्बन्ध तत्पुरुष
पद | विग्रह | पद | विग्रह |
---|---|---|---|
अत्रदान | अत्र का दान | श्रमदान | श्रम का दान |
वीरकन्या | वीर की कन्या | त्रिपुरारि | त्रिपुर का अरि |
राजभवन | राजा का भवन | प्रेमोपासक | प्रेम का उपासक |
आनन्दाश्रम | आनन्द का आश्रम | देवालय | देव का आलय |
रामायण | राम का अयन | खरारि | खर का अरि |
गंगाजल | गंगा का जल | रामोपासक | राम का उपासक |
चन्द्रोदय | चन्द्र का उदय | देशसेवा | देश की सेवा |
चरित्रचित्रण | चरित्र का चित्रण | राजगृह | राजा का गृह |
अमरस | आम का रस | राजदरबार | राजा का दरबार |
सभापति | सभा का पति | विद्यासागर | विद्या का सागर |
गुरुसेवा | गुरु की सेवा | सेनानायक | सेना का नायक |
ग्रामोद्धार | ग्राम का उद्धार | मृगछौना | मृग का छौना |
राजपुत्र | राजा का पुत्र | पुस्तकालय | पुस्तक का आलय |
राष्ट्रपति | राष्ट्र का पति | हिमालय | हिम का आलय |
घुड़दौड़ | घोड़ों की दौड़ | सेनानायक | सेना के नायक |
यथाशक्ति | शक्ति के अनुसार | राजपुरुष | राजा का पुरुष |
राजमंत्री | राजा का मंत्री |
अधिकरण तत्पुरुष
पद | विग्रह | पद | विग्रह |
---|---|---|---|
पुरुषोत्तम | पुरुषों में उत्तम | पुरुषसिंह | पुरुषों में सिंह |
ग्रामवास | ग्राम में वास | शास्त्रप्रवीण | शास्त्रों में प्रवीण |
आत्मनिर्भर | आत्म पर निर्भर | क्षत्रियाधम | क्षत्रियों में अधम |
शरणागत | शरण में आगत | हरफनमौला | हर फन में मौला |
मुनिश्रेष्ठ | मुनियों में श्रेष्ठ | नरोत्तम | नरों में उत्तम |
ध्यानमग्न | ध्यान में मग्न | कविश्रेष्ठ | कवियों में श्रेष्ठ |
दानवीर | दान में वीर | गृहप्रवेश | गृह में प्रवेश |
नराधम | नरों में अधम | सर्वोत्तम | सर्व में उत्तम |
रणशूर | रण में शूर | आनन्दमग्न | आनन्द में मग्न |
आपबीती | आप पर बीती |
कर्मधारय समास
पद | विग्रह | पद | विग्रह |
---|---|---|---|
नवयुवक | नव युवक | छुटभैये | छोटे भैये |
कापुरुष | कुत्सित पुरुष | कदत्र | कुत्सित अत्र |
निलोत्पल | नील उत्पल | महापुरुष | महान पुरुष |
सन्मार्ग | सत् मार्ग | पीताम्बर | पीत अम्बर |
परमेश्र्वर | परम् ईश्र्वर | सज्जन | सत् जन |
महाकाव्य | महान् काव्य | वीरबाला | वीर बाला |
महात्मा | महान् है जो आत्मा | महावीर | महान् वीर |
अंधविश्वास | अंधा है जो विश्वास | अंधकूप | अंधा है जो कूप (कुआँ) |
घनश्याम | घन के समान श्याम | नीलकंठ | नीला है जो कंठ |
अधपका | आधा है जो पका | काली मिर्च | काली है जो मिर्च |
दुरात्मा | दुर (बुरी) है जो आत्मा | नीलाम्बर | नीला है जो अंबर |
अकाल मृत्यु | अकाल (असमय) है जो मृत्यु | नीलगाय | नीली है जो गाय |
नील गगन | नीला है जो गगन | परमांनद | परम् है जो आनंद |
महाराजा | महान है जो राजा | महादेव | महान है जो देव |
शुभागमन | शुभ है जो आगमन | महाजन | महान है जो जन |
नरसिंह | नर रूपी सिंह | चंद्रमुख | चंद्र के समान मुख |
क्रोधाग्नि | क्रोध रूपी अग्नि | श्वेताम्बर | श्वेत है जो अम्बर |
लाल टोपी | लाल है जो टोपी | सदधर्म | सत है जो धर्म |
महाविद्यालय | महान है जो विद्यालय | विद्याधन | विद्या रूपी धन |
करकमल | कमल के समान कर | मृगनयन | मृग जैसे नयन |
खटमिट्ठा | खट्टा और मीठा है | नरोत्तम | नरों में उत्तम हैं जो |
प्राणप्रिय | प्राण के समान प्रिय | घनश्याम | घन के समान श्याम |
कमलनयन | कमल सरीखा नयन | परमांनद | परम आनंद |
चन्द्रमुख | चाँद-सा सुन्दर मुख | चन्द्रवदन | चन्द्र के समान वदन (मुखड़ा) |
घृतात्र | घृत मिश्रित अत्र | महाकाव्य | महान है काव्य जो |
धर्मशाला | धर्मार्थ के लिए शाला | कुसुमकोमल | कुसुम के समान कोमल |
कपोताग्रीवा | कपोत के समान ग्रीवा | गगनांगन | गगन रूपी आंगन |
चरणकमल | कमल के समान चरण | तिलपापड़ी | तिल से बनी पापड़ी |
दहीबड़ा | दही में भिंगोया बड़ा | पकौड़ी | पकी हुई बड़ी |
परमेश्वर | परम ईश्वर | महाशय | महान आशय |
महारानी | महती रानी | मृगनयन | मृग के समान नयन |
लौहपुरुष | लौह सदृश पुरुष |
विशेष्यपूर्वपदकर्मधारय
पद | विग्रह | पद | विग्रह |
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कुमारश्रवणा | कुमारी (क्वांरी) | मदनमनोहर | मदन जो मनोहर है |
श्यामसुन्दर | श्याम जो सुन्दर है | जनकखेतिहर | जनक खेतिहर (खेती करनेवाला) |
विशेषणोभयपदकर्मधारय
पद | विग्रह | पद | विग्रह |
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नीलपीत | नीला-पीला (दोनों मिले) | कृताकृत | किया-बेकिया |
शीतोष्ण | शीत-उष्ण (दोनों मिले) | कहनी-अनकहनी | कहना-न-कहना |
विशेष्योभयपदकर्मधारय
पद | विग्रह | पद | विग्रह |
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आम्रवृक्ष | आम्र है जो वृक्ष | वायसदम्पति | वायस है जो दम्पति |
उपमानकर्मधारय
पद | विग्रह | पद | विग्रह |
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विद्युद्वेग | विद्युत के समान वेग | शैलोत्रत | शैल के समान उत्रत |
कुसुमकोमल | कुसुम के समान कोमल | घनश्याम | घन-जैसा श्याम |
लौहपुरुष | लोहे के समान पुरुष (कठोर) |
उपमितकर्मधारय
पद | विग्रह | पद | विग्रह |
---|---|---|---|
चरणकमल | चरण कमल के समान | मुखचन्द्र | मुख चन्द्र के समान |
अधरपल्लव | अधर पल्लव के समान | नरसिंह | नर सिंह के समान |
पद पंकज | पद पंकज के समान |
रूपकर्मधारय
पद | विग्रह | पद | विग्रह |
---|---|---|---|
पुरुषरत्न | पुरुष ही है रत्न | भाष्याब्धि | भाष्य ही है अब्धि |
मुखचन्द्र | मुख ही है चन्द्र | पुत्ररत्न | पुत्र ही है रत्न |
अव्ययीभाव समास
पद | विग्रह | पद | विग्रह |
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दिनानुदिन | दिन के बाद दिन | प्रत्यंग | अंग-अंग |
भरपेट | पेट भरकर | यथाशक्ति | शक्ति के अनुसार |
निर्भय | बिना भय का | उपकूल | कूल के समीप |
प्रत्यक्ष | अक्षि के सामने | निधड़क | बिना धड़क के |
बखूबी | खूबी के साथ | यथार्थ | अर्थ के अनुसार |
प्रत्येक | एक-एक | मनमाना | मन के अनुसार |
यथाशीघ्र | जितना शीघ्र हो | बेकाम | बिना काम का |
बेलाग | बिना लाग का | आपादमस्तक | पाद से मस्तक तक |
प्रत्युपकार | उपकार के प्रति | परोक्ष | अक्षि के परे |
बेफायदा | बिना फायदे का | बेरहम | बिना रहम के |
प्रतिदिन | दिन दिन | आमरण | मरण तक |
अनुरूप | रूप के योग्य | यथाक्रम | क्रम के अनुसार |
बेखटके | बिना खटके वे (बिन) | यथासमय | समय के अनुसार |
आजन्म | जन्म से लेकर | एकाएक | अचानक, अकस्मात |
दिनोंदिन | कुछ (या दिन) ही दिन में | यथोचित | जितना उचित हो |
रातोंरात | रात-ही-रात में | आजीवन | जीवन पर्यत/तक |
गली-गली | प्रत्येक गली | भरपूर | पूरा भरा हुआ |
यथानियम | नियम के अनुसार | प्रतिवर्ष | वर्ष-वर्ष/हर वर्ष |
बीचोंबीच | बीच ही बीच में | आजकल | आज और कल |
यथाविधि | विधि के अनुसार | यथास्थान | स्थान के अनुसार |
यथासंभव | संभावना के अनुसार | व्यर्थ | बिना अर्थ के |
रातभर | भर रात | अनुकूल | कुल के अनुसार |
अनुरूप | रूप के ऐसा | आसमुद्र | समुद्रपर्यन्त |
पल-पल | हर पल | बार-बार | हर बार |
द्विगु कर्मधारय (समाहारद्विगु)
पद | विग्रह | पद | विग्रह |
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त्रिभुवन | तीन भुवनों का समाहार | त्रिकाल | तीन कालों का समाहार |
चवत्री | चार आनों का समाहार | नवग्रह | नौ ग्रहों का समाहार |
त्रिगुण | तीन गुणों का समूह | पसेरी | पाँच सेरों का समाहार |
अष्टाध्यायी | अष्ट अध्यायों का समाहार | त्रिपाद | तीन पादों का समाहार |
पंचवटी | पाँच वटों का समाहार | त्रिलोक, त्रिलोकी | तीन लोकों का समाहार |
दुअत्री | दो आनों का समाहार | चौराहा | चार राहों का समाहार |
त्रिफला | तीन फलों का समाहार | नवरत्न | नव रत्नों का समाहार |
सतसई | सात सौ का समाहार | पंचपात्र | पाँच पात्रों का समाहार |
चतुर्भुज | चार भुजाओं का समूह | चारपाई | चार पैरों का समाहार |
तिरंगा | तीन रंगों का समाहार | अष्टसिद्धि | आठ सिद्धियों का समाहार |
चतुर्मुख | चार मुखों का समूह | त्रिवेणी | तीन वेणियों का समूह |
नवनिधि | नौ निधियों का समाहार | चवन्नी | चार आनों का समाहार |
दोपहर | दो पहरों का समाहार | पंचतंत्र | पाँच तंत्रो का समाहार |
सप्ताह | सात दिनों का समूह | त्रिनेत्र | तीनों नेत्रों का समूह |
दुराहा | दो राहों का समाहार | चतुर्वेद | चार वेदों का समाहार |
उत्तरपदप्रधानद्विगु
पद | विग्रह | पद | विग्रह |
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दुपहर | दूसरा पहर | शतांश | शत (सौवाँ) अंश |
पंचहत्थड़ | पाँच हत्थड़ (हैण्डिल) | पंचप्रमाण | पाँच प्रमाण (नाप) |
दुसूती | दो सूतोंवाला | दुधारी | दो धारोंवाली (तलवार) |
बहुव्रीहि (समानाधिकरणबहुव्रीहि)
पद | विग्रह | पद | विग्रह |
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प्राप्तोदक | प्राप्त है उदक जिसे | दत्तभोजन | दत्त है भोजन जिसे |
पीताम्बर | पीत है अम्बर जिसका | जितेन्द्रिय | जीती है इन्द्रियाँ जिसने |
निर्धन | निर्गत है धन जिससे | मिठबोला | मीठी है बोली जिसकी (वह पुरुष) |
चौलड़ी | चार है लड़ियाँ जिसमें (वह माला) | चतुर्भुज | चार है भुजाएँ जिसकी |
दिगम्बर | दिक् है अम्बर जिसका | सहस्त्रकर | सहस्त्र है कर जिसके |
वज्रदेह | वज्र है देह जिसकी | लम्बोदर | लम्बा है उदर जिसका |
दशमुख | दश है मुख जिसके | गोपाल | वह जो, गौ का पालन करे |
सतसई | सात सौ का समाहार | पंचपात्र | पाँच पात्रों का समाहार |
चतुर्वेद | चार वेदों का समाहार | त्रिलोचन | तीन है लोचन जिसके अर्थात शिव |
कमलनयन | कमल के समान है नयन जिसके अर्थात विष्णु | गिरिधर | गिरि (पर्वत) को धारण करने वाला अर्थात श्री कृष्ण |
गजानन | गज के समान आनन (मुख) वाला अर्थात गणेश | घनश्याम | वह जो घन के समान श्याम है अर्थात श्रीकृष्ण |
चक्रधर | चक्र धारण करने वाला अर्थात विष्णु | चतुर्मुख | चार है मुख जिसके, वह अर्थात ब्रह्मा |
नीलकंठ | नीला है जो कंठ अर्थात शिव | पंचानन | पाँच है आनन (मुँह) जिसके अर्थात वह देवता |
बारहसिंगा | बारह हैं सींग जिसके वह पशु | महेश | महान है जो ईश अर्थात शिव |
लाठालाठी | लाठी से लड़ाई | सरसिज | सर से जन्म लेने वाला |
कपीश | कपियों में है ईश जो- हनुमान | खगेश | खगों का ईश है जो वह गरुड़ |
गोपाल | गो का पालन जो करे वह, श्रीकृष्ण | चक्रपाणि | चक्र हो पाणि (हाथ) में जिसके वह विष्णु |
चतुरानन | चार है आनन जिनको वह, ब्रह्मा | जलज | जल में उत्पन्न होता है वह कमल |
जल्द | जल देता है जो वह बादल | नीलाम्बर | नीला अम्बर या नीला है अम्बर जिसका वह, बलराम |
मुरलीधर | मुरली को धरे रहे (पकड़े रहे) वह, श्रीकृष्ण | वज्रायुध | वज्र है आयुध जिसका वह, इन्द्र |
व्यधिकरणबहुव्रीहि
पद | विग्रह | पद | विग्रह |
---|---|---|---|
शूलपाणि | शूल है पाणि में जिसके | चन्द्रभाल | चन्द्र है भाल पर जिसके |
वीणापाणि | वीणा है पाणि में जिसके | चन्द्रवदन | चन्द्र है वदन पर जिसके |
तुल्ययोग या सहबहुव्रीहि
पद | विग्रह | पद | विग्रह |
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सबल | बल के साथ है जो | सपरिवार | परिवार के साथ है जो |
सदेह | देह के साथ है जो | सचेत | चेत (चेतना) के साथ है जो |
व्यतिहारबहुव्रीहि
पद | विग्रह | पद | विग्रह |
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मुक्कामुक्की | मुक्के-मुक्के से जो लड़ाई हुई | लाठालाठी | लाठी-लाठी से जो लड़ाई हुई |
डण्डाडण्डी | डण्डे-डण्डे से जो लड़ाई हुई |
प्रादिबहुव्रीहि
पद | विग्रह | पद | विग्रह |
---|---|---|---|
बेरहम | नहीं है रहम जिसमें | निर्जन | नहीं है जन जहाँ |
द्वन्द्व (इतरेतरद्वन्द्व)
पद | विग्रह | पद | विग्रह |
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धर्माधर्म | धर्म और अधर्म | भलाबुरा | भला और बुरा |
गौरी-शंकर | गौरी और शंकर | सीता-राम | सीता और राम |
लेनदेन | लेन और देन | देवासुर | देव और असुर |
शिव-पार्वती | शिव और पार्वती पापपुण्य पाप और पुण्य | भात-दाल | भात और दाल |
देश-विदेश | देश और विदेश | भाई-बहन | भाई और बहन |
हरि-शंकर | हरि और शंकर | धनुर्बाण | धनुष और बाणा |
अन्नजल | अन्न और जल | आटा-दाल | आटा और दाल |
ऊँच-नीच | ऊँच और नीच | गंगा-यमुना | गंगा और यमुना |
दूध-दही | दूध और दही | जीवन-मरण | जीवन और मरण |
पति-पत्नी | पति और पत्नी | बच्चे-बूढ़े | बच्चे और बूढ़े |
माता-पिता | माता और पिता | राजा-प्रजा | राजा और प्रजा |
राजा-रानी | राजा और रानी | सुख-दुःख | सुख और दुःख |
अपना-पराया | अपना और पराया | गुण-दोष | गुण और दोष |
नर-नारी | नर और नारी | पृथ्वी-आकाश | पृथ्वी और आकाश |
बाप-दादा | बाप और दादा | यश-अपयश | यश और अपयश |
हार-जीत | हार और जीत | ऊपर-नीचे | ऊपर और नीचे |
शीतोष्ण | शीत और उष्ण | इकतीस | एक और तीस |
दम्पति | जाया-पति | राग-द्वेष | राग और द्वेष |
लाभालाभ | लाभ और अलाभ | राधा-कृष्ण | राधा और कृष्ण |
लोटा-डोरी | लोटा और डोरी | गाड़ी-घोड़ा | गाड़ी और घोड़ा |
समाहारद्वन्द्व
पद | विग्रह | पद | विग्रह |
---|---|---|---|
रुपया-पैसा | रुपया-पैसा वगैरह | घर-आँगन | घर-आँगन वगैरह (परिवार) |
घर-द्वार | घर-द्वार वगैरह (परिवार) | नाक-कान | नाक-कान वगैरह |
नहाया-धोया | नहाया और धोया आदि | कपड़ा-लत्ता | कपड़ा-लत्ता वगैरह |
वैकल्पिकद्वन्द्व
पद | विग्रह | पद | विग्रह |
---|---|---|---|
पाप-पुण्य | पाप या पुण्य | भला-बुरा | भला या बुरा |
लाभालाभ | लाभ या अलाभ | धर्माधर्म | धर्म या अधर्म |
थोड़ा-बहुत | थोड़ा या बहुत | ठण्डा-गरम | ठण्डा या गरम |
नञ समास
पद | विग्रह | पद | विग्रह |
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अनाचार | न आचार | नास्तिक | न आस्तिक |
अनदेखा | न देखा हुआ | अनुचित | न उचित |
अन्याय | न न्याय | अज्ञान | न ज्ञान |
अनभिज्ञ | न अभिज्ञ | अद्वितीय | जिसके समान दूसरा न हो |
नालायक | नहीं लायक | अगोचर | न गोचर |
अचल | न चल | अजन्मा | न जन्मा |
अधर्म | न धर्म | अनन्त | न अन्त |
अनेक | न एक | अनपढ़ | न पढ़ |
अपवित्र | न पवित्र | अलौकिक | न लौकिक |
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