Thursday 16 March 2017

ग्रीन हाउस प्रभाव (Green House Effect)

ग्रीन हाउस प्रभाव (Green House Effect)





ग्रीनहाउस प्रभाव एक प्राकृतिक प्रक्रिया है जिसके द्वारा किसी ग्रह या उपग्रह के वातावरण में मौजूद कुछ गैसे उस ग्रह। उपग्रह के वातावरण के ताप को अपेक्षाकृत अधिक बनाने में मदद करती है। इन ग्रहों को ग्रीन हाउस गैस कहते हैं। जिनमें प्रमुख हैं कार्बनडाय ऑक्साइड, जलबाष्प मीथेन। ग्रीन हाउस गैसों से उत्पन्न प्रभाव ही है जो पृथ्वी पर जीवन जीने योग्य प्रभाव तैयार करता है। धरती के वातावरण के तापमान को प्रभावित करने वाले अनेक कारक हैं जिसमें से ग्रीनहाउस प्रभाव एक है। इसकी खोज 1824 में जोसेफ फुरिअर ने की थी। इस पर 1858 में जॉन टिण्डल ने शोध कर इसे प्रमाणित किया। किन्तु सबसे पहले इसके बारे में आंकिक जानकारी 1896 में स्वान्ते अर्हिनियस ने प्रकाशित की। पूरे विश्व के औसत तापमान में लगातार वृद्धि दर्ज की गयी है। मानव द्वारा उत्पादित अतिरिक्त ग्रीनहाउस गैसों के कारण ऐसा होना माना जा रहा है। ग्रीनहाउस गैसों के कारण ही पृथ्वी पर रोगों की बाढ़ आने से रुकी हुई है। यह गर्माती धरती को ठंडा करने में सबसे सफल भूमिका निभाती है। हिमालय में मौजूद ग्लेशियर 50 फीट प्रतिवर्ष की दर से पीछे हट रहे हैं और यह स्थिति 1970 से जब से वायुमण्डल की गर्माहट से तेजी रिकार्ड की गई है, बराबर बनी हुई है। 1998 में डोक्रियानी बर्नाक ग्लेशियर में 20.1 मीटर की कमी आई है जबकि उस वर्ष सर्दियाँ प्रचण्ड थीं। गंगोत्री ग्लेशियर 30 मीटर प्रतिवर्ष की दर से पीछे हट रहा है।


 . . आइये जानें कि यह गैसें किस तरह कार्य करती हैं। पृथ्वी द्वारा सूर्य से ऊर्जाग्रहण करने के दौरान धरती की सतह गर्म हो जाती है। जब ये ऊर्जा वातावरण से होकर गुजरती हैं तब कुछ मात्रा में लगभग 30 प्रतिशत ऊर्जा वातावरण में ही रह जाती हैं। इस ऊर्जा का कुछ भाग धरती की सतह और समुद्र के जरिए परावर्तित होकर पुन: वातावरण में चला जाता है। वातावरण की कुछ गैसों द्वारा पूरी पृथ्वी पर एक परत सी बना ली जाती है और वे इस ऊर्जा का कुछ भाग भी सोख लेते हैं। इन गैसों में शामिल होती हैं क्ग्र्2, मीथेन नाइट्रस ऑक्साइड, जलकण जो वातावरण के 1 प्रतिशत से भी कम भाग में होते हैं। इन गैसों को ग्रीनहाउस गैसें कहने के पीछे तथ्य यह कि जिस प्रकार से हरे रंग का काँच ऊष्मा को अंदर आने से रोकता है कुछ इसी प्रकार से यह गैसें पृथ्वी के ऊपर परत बनाकर अधिक ऊष्मा से इसकी रक्षा करती हैं। जिसके कारण इसे ग्रीन हाऊस गैसे कहते हैं। ग्रीन हाउस गैसों की परत पृथ्वी पर इसकी उत्पत्ति के समय से है। चूँकि अधिक मानवीय क्रिया कलापों के कारण इस प्रकार की अधिकाधिक गैसें वातावरण में छोड़ी जा रही हैं जिससे यह परतें मोटी होती जा रही हैं और प्राकृतिक ग्रीन हाउस का प्रभाव समाप्त हो रहा है। कार्बन डायऑक्साइड तब बनती है जब हम किसी भी प्रकार का ईंधन जलाते हैं जैसे कोयला तेल प्राकृतिक गैस आदि। इसके बाद हम वृक्षों को भी नष्ट कर रहे हैं ऐसे में वृक्षों में संचित कार्बन डाई ऑक्साइड भी वातावरण में जमा मिलती है। खेती के कामों में वृद्धि, जमीन के उपयोग में विविधता और अन्य कई स्रोतों के कारण वातावरण में मिथेन और नाइट्रस ऑक्साइड गैस का स्राव भी अधिक मात्रा में होता है। औद्योगिक कारणों से भी नवीन ग्रीन हाऊस प्रभाव की गैसें वातावरण में स्रावित हो रहीं हैं। जैसे क्लोरो फ्लोरो कार्बन जबकि आटोमोबाइल से निकलने वाले धुंए के कारण ओजोन परत के निर्माण से संबद्ध गैसें निकलती हैं। इस प्रकार के परिवर्तनों से सामान्यत: वैश्विक तापमान अथवा जलवायु में परिवर्तन जैसे परिणाम परिलक्षित होते हैं। हाल ही में एक नतीजा सामने आया है कि जितने भी वाहन पेट्रोल से चलते हैं वायु को प्रदूषित करने में अपना अमूल्य योगदान देते हैं। इनसे भी ग्रीनहाउस प्रभाव को सीधे तौर पर हानि हो रही है। ग्रीनहाउस गैसों के कारण इस तरह की चेतावनियाँ पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से मिल ही रही हैं कि मानवीय स्वास्थ्य भी इनकी पकड़ में आगया है। गर्माती धरती से न केवल गैसें बल्कि मानव जीवन भी प्रभावित हो चला है।

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