दिल से ............... दिल तक
इंसान को सभी रिश्ते बने बनाए मिलते हैं और उन रिश्तों को उन रिश्तों को भरपूर तरीके से निभाते थे। धीरे धीरे समय बदला और लोग बने-बनाए रिश्तों से हटकर दूर-दराज में बसे अनजान लोगों से एक रिश्ता बनाने लगे और ऐसा नहीं था कि अनजान लोगों से ये रिश्ते पहले नहीं बनते थे। पहले भी अनजान लोगों से दोस्ती का एक रिश्ता बनता था तो बहुत ही स्नेह से निभाया जाता था। हमारे परदादा (दादा के पिताजी) ने भी एक ऐसा ही रिश्ता कहीं दूर से बनाया था जो चार पीढि़यां बीत जाने के बाद भी आज भी वैसे ही जीवंत है जैसा परदादा के समय में हुआ करता था। दोनों तरफ के परिवार बढ़े और दूर-दराज के जगहों पर जाकर बसे लेकिन वो रिश्ता आज भी उसी मिठास के साथ हमारे साथ-साथ चल रहा है। आज भी उस तरह के रिश्ते बन रहे हैं जिन्हें हम नहीं जानते और लेकिन हम उनसे जुड़ जाते हैं और कुछ दूर तक या बहुत दूर तक साथ निभाते हैं।
बदलते समय में सब कुछ बदला और एक सोशल मीडिया ने आकार लिया जो कई नामों से हमारे बीच जाना जाता है। उसी सोशल मीडिया पर लोग एक दूसरे से जुड़ने लगे और रिश्तों की डोर में बंधने लगे। कुछ लोग कहते हैं कि ये सोशल मीडिया तो बस ये है, वो है, बेकार है आदि आदि, जितने लोग उतने तरह की बातें। कुछ कहते हैं बस ये रिश्ते मोबाइल और कंप्यूटर तक ही जीवंत रहते हैं, कुछ कहते हैं कि आपके दुख में जरूरत पड़ने पर ये रिश्ते आपसे दूर भाग जाते हैं, तो कुछ कहते हैं कि खुद की खुशियों के समय में ये रिश्ते भी अपने तक ही सीमित रह जाते हैं और इंटरनेट पर बने ये रिश्ते उन्हें याद तक नहीं आते। जो ऐसा कहते हैं उनका कहना भी गलत नहीं है। हर दिन हर व्यक्ति का दो-चार-दस लोगों से परिचय होता है और दो-चार दिन के बाद वो परिचय समाप्त हो जाता है और फिर से अनजान बन जाते हैं लेकिन कुछ लोगों का परिचय एक बंधन में बंध जाता है जिसमें प्यार, प्रेम, स्नेह, आशीर्वाद सब कुछ होता है और एक-दूसरे के सुख-दुख में शामिल होने की ललक भी होती है।
जिस सोशल मीडिया को कुछ लोग अच्छा, कुछ लोग बुरा, तो कुछ लोग टाइम पास और भी न जाने क्या-क्या कहते हैं, उसी सोशल मीडिया में लोग ग्रुपों का निर्माण करने लगे और उन्हीं ग्रुपों में एक ग्रुप ने आकार लिया जिसका नाम है GDS (घुमक्कड़ी दिल से), जो अब एक सोशल मीडिया का एक ग्रुप न रहकर एक परिवार में तब्दील हो चुका है, जहां बुआ, दीदी, भाई आदि रिश्ते मौजूद हैं। इसी GDS परिवार में मुम्बई निवासी दर्शन कौर धनोय हैं जिन्हें बुआ की उपाधि से सम्मानित किया गया है और उस नाम को उन्होंने हृदय से स्वीकार भी किया है और केवल स्वीकार ही नहीं किया उसे निभा भी रही हैं।
अभी 22 जनवरी 2019 इन्हीं बुआ जी की बेटी की शादी में शामिल होकर लौटा हूं। बुआ जी ने हम सब घुमक्कडों को शादी में शामिल होने के लिए स्नेहपूर्वक आमंत्रित किया और जिसे लोगों ने दिल से स्नेहपूर्वक सहर्ष स्वीकार किया। जब शादी का दिन तय हुआ था तभी इन्होंने सबको अपनी तरफ से शादी की तिथि की सूचना सबको दे दिया था कि अमुक तिथि को शादी है। उसके बाद ऐसा भी नहीं कि निमंत्रण देने के बाद इनका काम खत्म हो गया था। बुआ जी का असली काम तो अब शुरू था कि कौन-कौन आएगा, कौन नहीं आ पाएगा, और आएगा तो किस साधन से आएगा, किस तरह पहुंचेगा, कहां रुकेगा आदि आदि। शादी से करीब दो महीने पहले इन्होंने एक व्हाट्सएप्प ग्रुप बनाकर सबको इकट्ठा किया और आने-जाने की सारी जानकारियां आदि की जानकारी देती और लेती रहीं। कौन किस दिन पहुंचेगा, किस साधन से पहुंचेगा, किसकी टिकट बन गई, किसकी नहीं बनी आदि आदि जानकारियां वो लेती रही।
आज की भागती दौड़ती जिंदगी में जहां लोग अपने सगे-संबंधियों और नाते-रिश्ते को भूलते जा रहे हैं वहां आभासी दुनिया से बने रिश्तों से ऐसे खुशी के मौके पर जब आमंत्रण आता है तो मन अपने आप गुलाब के फूलों की तरह खिल उठता है, बिना बरसात के भी मन के आसमान में बरसने वाले बादल दौड़ने लगते हैं। मन में एक अलग तरह की खुशियों का संचार होने लगता है। जहां हमारे जन्म से बने-बनाए रिश्ते अपनी खुशियों में हमें शामिल करना छोड़ रहे हैं वहां आभासी दुनिया से जुड़े लोग अपनी खुशियों में शामिल होने के लिए बुलावा भेजते हैं तो आंखों से दो बूंद अवश्य छलकते हैं जिसमें कुछ खुशियां भी होती है और कुछ गम भी। गम इस बात का कि जो हमारे थे वो मुझे भूलने लगे हैं और खुशी इस बात की जिनको हम केवल नाम से जानते हैं, कभी देखा नहीं, कभी मिला नहीं वो हमें अपने पास बुला रहे हैं।
शादी का कार्यक्रम 21 और 22 जनवरी को जयपुर में था जिसमें कई लोग देश के विभिन्न हिस्सों से वहां पहुंचे। शादी में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने के लिए कई सारे साथी तैयार हुए लेकिन कुछ साथियों का आवश्यक कार्यों के कारण शादी में उपस्थित होना मुश्किल हो गया और वो वहां तक नहीं पहुंच सके। कुछ साथियों ने समय निकाला और शादी में उपस्थित हुए। वहां पहुंचने वाले लोगों में संजय कौशिक (सोनीपत), रुपेश शर्मा (ग्रेटर नोएडा), अभ्यानन्द सिन्हा (दिल्ली), संगीता बलोदी (मुम्बई), चारु दुबे (मुम्बई), रितेश गुप्ता (आगरा से सपरिवार), देवेन्द्र कोठारी (जयपुर से सपरिवार) और सुशांत सिंघल (सहारनपुर) थे। कुछ और नाम हैं जो किसी कारणवश वहां नहीं पहुंच सके लेकिन उनका मन उस शादी में ही लगा था, तभी कुछ कुछ देर पर उन लोगों के फोन और मैसेज आ रहे थे। ये फोन और मैसेज आना ये बता रहे थे कि वो यहां न आकर भी हमारे साथ हैं।
शादी में शामिल होने के हिसाब से सभी लोगों को 21 जनवरी को किसी समय पहुंचना था लेकिन सभी भाई-बंधु के मन में शादी में शामिल होने की ऐसी ललक लगी हुई थी कि उससे भी एक दिन पहले वहां पहुंच गए और कोठारी जी (देवेंद्र कोठारी और कंचन कोठारी) जी के यहां डेरा डाल दिए। ऐसा भी नहीं कि वहां जाकर केवल डेरा डाले, वहां पहुंचकर कोठारी जी (सपरिवार) के साथ दो दिनों तक जयपुर में घुमक्कड़ी करते रहे। कोठारी जी के यहां भी हम सब पहली ही बार गए थे लेकिन उनके यहां जो प्यार और स्नेह मिला उसके लिए क्या कहें, कहां से ऐसे शब्द लाएं जो उनके स्नेह को दर्शा सके, शब्द नहीं हैं हमारे पास उस स्नेह को दर्शाने के लिए। दो दिनों तक हम कोठारी जी के यहां रहे और जो अपनापन और स्नेह उन्होंने बरसाया कि क्या कहूं। वो कहते हैं कि बरसात में तो केवल तन भीगता है लेकिन उनके स्नेह ने हम सबके मन को भीगो दिया। दो दिन तक हर मिनट दर मिनट दोनों ने हम सबका खयाल रखा और इतना ही नहीं दो दिनों तक सुबह से लेकर रात तक और फिर सुबह से लेकर शाम तक सबको जयपुर के दर्शनीय स्थलों की सैर कराते रहे। उनके साथ बिताए हुए ये पल पूरी जिंदगी में एक मिनट के लिए भी धुंधली नहीं पड़ेगी। गुड़ की मिठास तो कुछ देर के लिए होती है लेकिन उनके प्रेम की मिठास बस पूछिए मत।
अरे हां, इन सब विवरणों में एक और दम्पत्ति की कहानी तो छूट ही गई, वो हैं संजय कौशिक जी के मित्र राकेश गुलिया और उनकी पत्नी मीनाक्षी गुलिया। वैसे तो मीनाक्षी जी से हम सबकी मुलाकात GDS के जोधपुर सम्मेलन में हुई थी और तभी उन्होंने अपने घर आने का न्यौता दिया था। वो न्यौता पूरा करने का दिन इतनी जल्दी आएगा इसका पता नहीं था। जैसे ही संजय कौशिक द्वारा पता चला कि हम लोग उधर से ही गुजर रहे हैं तो उन्होंने सीधा प्रेम मिश्रित आदेश दिया कि बिना घर गए यहां से आगे नहीं बढ़ सकते। अब उस प्रेम मिश्रित आदेश को ठुकराने की हिम्मत तो किसी में नहीं थी तो जयपुर से दिल्ली जाते हुए उनके घर पर पहुंच गए।
वहां पहुंचा तो देखते ही आश्चर्य की सीमा नहीं रही। हम लोगों के पहुंचने से पहले ही पूरे भोज की तैयारी उन दोनों ने कर रखा था। वो बाजरे की रोटी, तरह तरह की चटनियां, ताजे ताजे दही से निकाले हुए कटोरा भर के मक्खन और बाल्टी भर के मट्ठा (लस्सी), गुड़ और भी न जाने कई चीजें। वहां बैठकर हम लोगों ने जो खाना शुरू किया तो क्या कहें बस खाते ही चले गए और मेरी खुद की हालत ऐसी हुई कि हम उठने लायक भी नहीं रहे। खाने के बाद दो लोगों ने जब उठाया तो हम ठीक से उठ पाए। वापसी में भी उनका आदेश था कि चाहे जिस समय भी गुजरे यहां से होकर ही जाना है। अब वापसी में समय ऐसा कि जब वहां से गुजर रहे थे रात के करीब एक बज रहे थे और उनसे मिलना भी जरूरी था क्योंकि ये उनका आदेश था। पहले तो लगा कि इतनी रात में जगाना ठीक नहीं है लेकिन न जाने पर भी उनको दुख होता तो फिर पहुंच गए रात को एक बजे उनको परेशान करने और चाय पीकर और कुछ मीठी-प्यारी बातें करने के बाद फिर आगे के सफर पर चल पड़े थे। उनके यहां भी जो प्यार और अपनापन मिला वो कभी न भूलने वाले पलों में शामिल हुआ। उनकी मुलाकात लस्सी में मिले गुड़ की तरह तन-मन में बस गया।
कोठारी दम्पत्ति और गुलिया दम्पत्ति की मुलाकात पर कहने के लिए हमारे पास शब्द नहीं है। फिर भी इतना तो कह ही सकते हैं कि आज के समय जहां लोग मिलने के नाम पर बहाने बना लेते हैं कि हम बाहर जा रहे हैं, उस दिन हमें काम है और हम उपलब्ध नहीं होंगे, आदि आदि न जाने कितने बहाने। वहीं आभासी दुनिया में केवल नाम से परिचय होने के बावजूद रास्ते में स्वागत के लिए अपनी पलकें बिछाए जब ऐसे लोग तैयार मिलते हैं तो मन का मयूर ऐसे नाचता है जैसे बारहों महीने सावन हो, मन में बसी कलियां ऐसे खिलती है जैसे बसंत आ गया हो। अंततः यहीं कह सकते हैं कि जहां प्रेम मिले वहीं मन लगता है।
जब बुआ का निमंत्रण आया था तो लगा था कि अनजान जगह, अनजान लोग, अनजान शहर में कैसा महसूस होगा लेकिन वहां पहुंचकर हमें लगा ही नहीं कि हम किसी अनजान जगह पर अनजान लोगों के बीच आए हैं। मुझे लगता है कि शायद यही भाव बुआ के मन में उठ रहा होगा कि शादी में शामिल होने के लिए इतने लोगों को बुलाया है, पता नहीं उनको यहां आकर अच्छा लगेगा या नहीं लगेगा, वो लोग यहां आकर कैसा महसूस करेंगे, और इसके अलावा भी न जाने उनके मन में हमारी तरह कितने भाव आते-जाते रहे होंगे। पर बुआ जी एक बात हम अपनी तरफ से और वहां पहुंचे सभी साथियों की तरफ से आपको बताते हैं, लेकिन आप इसे अपने तक ही सीमित रखिएगा किसी को बताइएगा नहीं। बुआ जी, हम सभी ने पूरा पूरा आनंद लिया वहां जाकर, बहुत मजा आया था, वहां से आने का मन नहीं कर रहा था फिर भी आना पड़ा। वहां बिताए हर पल हम लोगों के लिए एक यादगार पल के रूप में सदा ही साथ रहेगा। आपसे इतना प्यार और स्नेह मिला उसके लिए कुछ कह नहीं सकता। बस यही कि बार बार ऐसे मौके पर जाने का मौका मिले।
जब हम अपने रिश्तेदारी में शादी में जाते हैं तो सभी लोग पहले से परिचित होते हैं लेकिन यहां हम सबके लिए वहां उपस्थित सभी लोग अपरिचित थे लेकिन हम सबके वहां पहुंचने पर बुआ ने वहां उपस्थित लोगों से हम सबका परिचय करवा दिया जिससे हमें कहीं अहसास ही नहीं हुआ कि हम ऐसे जगह हैं जहां हमें कोई नहीं जानता। बुआ की बचपन कुछ सहेलियों को भी हम लोगों ने बुआ बना दिया जिनमें दो के नाम हैं अलजीरा लोबो और रुक्मिणी मुंदरा। बुआ ने इस शादी में बुलाकर एक नई परम्परा को जन्म दिया है, एक नए सफर की शुरुआत किया है जिसमें हम उनके साथ कदम से कदम मिलाकर चलने की कोशिश करेंगे। कोशिश इसलिए कि कोशिशें ही कामयाब होती है, वादों का क्या वो तो टूट जाते हैं।
इस शादी में आना जाना और आपसी संबंध जिस चीज के कारण है उसका नाम है GDS (घुमक्कड़ी दिल से) और बिना GDS के ये संभव नहीं था। GDS के पूरे नाम में जो दिल शब्द है वो वास्तविक में दिल से ही है, इसे समझने के लिए भी एक दिल चाहिए, दिमाग लगाकर इसे समझ पाना संभव नहीं है, केवल दिल से ही समझ सकते हैं। एक बात जो मैं लिखना भूल ही गया। जब हम सब शादी में शामिल होने के बाद वापिस आ रहे थे तो विदाई मुलाकात के समय विवाह मंडप में पूरे घरातियों और बरातियों के सामने जब बुआ ने कहा कि अब निकालो GDS का बैनर, अब लगाओ अपना नारा जो तुम लोग लगाते हो तो हम सब शब्दहीन हो गए। किसी को इस बात की तो उम्मीद ही नहीं थी कि ऐसा भी हो सकता है। विवाह मंडप में मंच पर इस तरह नारा लगाना बहुत ही मुश्किल काम था। हम लोगों के मना करने के बाद भी बुआ नहीं मानाी और GDS जिंदाबाद, घुमक्कड़ी दिल से....मिलेंगे फिर से का नारा लगवा ही दिया, और उसके बाद हम सबने बुआ से विदाई लिया और मीठी-मीठी यादों को मन में बसाए अपने घर की तरफ चल पड़े।
अब अंत में केवल यही जय GDS और जय GDS।
इंसान को सभी रिश्ते बने बनाए मिलते हैं और उन रिश्तों को उन रिश्तों को भरपूर तरीके से निभाते थे। धीरे धीरे समय बदला और लोग बने-बनाए रिश्तों से हटकर दूर-दराज में बसे अनजान लोगों से एक रिश्ता बनाने लगे और ऐसा नहीं था कि अनजान लोगों से ये रिश्ते पहले नहीं बनते थे। पहले भी अनजान लोगों से दोस्ती का एक रिश्ता बनता था तो बहुत ही स्नेह से निभाया जाता था। हमारे परदादा (दादा के पिताजी) ने भी एक ऐसा ही रिश्ता कहीं दूर से बनाया था जो चार पीढि़यां बीत जाने के बाद भी आज भी वैसे ही जीवंत है जैसा परदादा के समय में हुआ करता था। दोनों तरफ के परिवार बढ़े और दूर-दराज के जगहों पर जाकर बसे लेकिन वो रिश्ता आज भी उसी मिठास के साथ हमारे साथ-साथ चल रहा है। आज भी उस तरह के रिश्ते बन रहे हैं जिन्हें हम नहीं जानते और लेकिन हम उनसे जुड़ जाते हैं और कुछ दूर तक या बहुत दूर तक साथ निभाते हैं।
बदलते समय में सब कुछ बदला और एक सोशल मीडिया ने आकार लिया जो कई नामों से हमारे बीच जाना जाता है। उसी सोशल मीडिया पर लोग एक दूसरे से जुड़ने लगे और रिश्तों की डोर में बंधने लगे। कुछ लोग कहते हैं कि ये सोशल मीडिया तो बस ये है, वो है, बेकार है आदि आदि, जितने लोग उतने तरह की बातें। कुछ कहते हैं बस ये रिश्ते मोबाइल और कंप्यूटर तक ही जीवंत रहते हैं, कुछ कहते हैं कि आपके दुख में जरूरत पड़ने पर ये रिश्ते आपसे दूर भाग जाते हैं, तो कुछ कहते हैं कि खुद की खुशियों के समय में ये रिश्ते भी अपने तक ही सीमित रह जाते हैं और इंटरनेट पर बने ये रिश्ते उन्हें याद तक नहीं आते। जो ऐसा कहते हैं उनका कहना भी गलत नहीं है। हर दिन हर व्यक्ति का दो-चार-दस लोगों से परिचय होता है और दो-चार दिन के बाद वो परिचय समाप्त हो जाता है और फिर से अनजान बन जाते हैं लेकिन कुछ लोगों का परिचय एक बंधन में बंध जाता है जिसमें प्यार, प्रेम, स्नेह, आशीर्वाद सब कुछ होता है और एक-दूसरे के सुख-दुख में शामिल होने की ललक भी होती है।
जिस सोशल मीडिया को कुछ लोग अच्छा, कुछ लोग बुरा, तो कुछ लोग टाइम पास और भी न जाने क्या-क्या कहते हैं, उसी सोशल मीडिया में लोग ग्रुपों का निर्माण करने लगे और उन्हीं ग्रुपों में एक ग्रुप ने आकार लिया जिसका नाम है GDS (घुमक्कड़ी दिल से), जो अब एक सोशल मीडिया का एक ग्रुप न रहकर एक परिवार में तब्दील हो चुका है, जहां बुआ, दीदी, भाई आदि रिश्ते मौजूद हैं। इसी GDS परिवार में मुम्बई निवासी दर्शन कौर धनोय हैं जिन्हें बुआ की उपाधि से सम्मानित किया गया है और उस नाम को उन्होंने हृदय से स्वीकार भी किया है और केवल स्वीकार ही नहीं किया उसे निभा भी रही हैं।
अभी 22 जनवरी 2019 इन्हीं बुआ जी की बेटी की शादी में शामिल होकर लौटा हूं। बुआ जी ने हम सब घुमक्कडों को शादी में शामिल होने के लिए स्नेहपूर्वक आमंत्रित किया और जिसे लोगों ने दिल से स्नेहपूर्वक सहर्ष स्वीकार किया। जब शादी का दिन तय हुआ था तभी इन्होंने सबको अपनी तरफ से शादी की तिथि की सूचना सबको दे दिया था कि अमुक तिथि को शादी है। उसके बाद ऐसा भी नहीं कि निमंत्रण देने के बाद इनका काम खत्म हो गया था। बुआ जी का असली काम तो अब शुरू था कि कौन-कौन आएगा, कौन नहीं आ पाएगा, और आएगा तो किस साधन से आएगा, किस तरह पहुंचेगा, कहां रुकेगा आदि आदि। शादी से करीब दो महीने पहले इन्होंने एक व्हाट्सएप्प ग्रुप बनाकर सबको इकट्ठा किया और आने-जाने की सारी जानकारियां आदि की जानकारी देती और लेती रहीं। कौन किस दिन पहुंचेगा, किस साधन से पहुंचेगा, किसकी टिकट बन गई, किसकी नहीं बनी आदि आदि जानकारियां वो लेती रही।
आज की भागती दौड़ती जिंदगी में जहां लोग अपने सगे-संबंधियों और नाते-रिश्ते को भूलते जा रहे हैं वहां आभासी दुनिया से बने रिश्तों से ऐसे खुशी के मौके पर जब आमंत्रण आता है तो मन अपने आप गुलाब के फूलों की तरह खिल उठता है, बिना बरसात के भी मन के आसमान में बरसने वाले बादल दौड़ने लगते हैं। मन में एक अलग तरह की खुशियों का संचार होने लगता है। जहां हमारे जन्म से बने-बनाए रिश्ते अपनी खुशियों में हमें शामिल करना छोड़ रहे हैं वहां आभासी दुनिया से जुड़े लोग अपनी खुशियों में शामिल होने के लिए बुलावा भेजते हैं तो आंखों से दो बूंद अवश्य छलकते हैं जिसमें कुछ खुशियां भी होती है और कुछ गम भी। गम इस बात का कि जो हमारे थे वो मुझे भूलने लगे हैं और खुशी इस बात की जिनको हम केवल नाम से जानते हैं, कभी देखा नहीं, कभी मिला नहीं वो हमें अपने पास बुला रहे हैं।
शादी का कार्यक्रम 21 और 22 जनवरी को जयपुर में था जिसमें कई लोग देश के विभिन्न हिस्सों से वहां पहुंचे। शादी में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने के लिए कई सारे साथी तैयार हुए लेकिन कुछ साथियों का आवश्यक कार्यों के कारण शादी में उपस्थित होना मुश्किल हो गया और वो वहां तक नहीं पहुंच सके। कुछ साथियों ने समय निकाला और शादी में उपस्थित हुए। वहां पहुंचने वाले लोगों में संजय कौशिक (सोनीपत), रुपेश शर्मा (ग्रेटर नोएडा), अभ्यानन्द सिन्हा (दिल्ली), संगीता बलोदी (मुम्बई), चारु दुबे (मुम्बई), रितेश गुप्ता (आगरा से सपरिवार), देवेन्द्र कोठारी (जयपुर से सपरिवार) और सुशांत सिंघल (सहारनपुर) थे। कुछ और नाम हैं जो किसी कारणवश वहां नहीं पहुंच सके लेकिन उनका मन उस शादी में ही लगा था, तभी कुछ कुछ देर पर उन लोगों के फोन और मैसेज आ रहे थे। ये फोन और मैसेज आना ये बता रहे थे कि वो यहां न आकर भी हमारे साथ हैं।
शादी में शामिल होने के हिसाब से सभी लोगों को 21 जनवरी को किसी समय पहुंचना था लेकिन सभी भाई-बंधु के मन में शादी में शामिल होने की ऐसी ललक लगी हुई थी कि उससे भी एक दिन पहले वहां पहुंच गए और कोठारी जी (देवेंद्र कोठारी और कंचन कोठारी) जी के यहां डेरा डाल दिए। ऐसा भी नहीं कि वहां जाकर केवल डेरा डाले, वहां पहुंचकर कोठारी जी (सपरिवार) के साथ दो दिनों तक जयपुर में घुमक्कड़ी करते रहे। कोठारी जी के यहां भी हम सब पहली ही बार गए थे लेकिन उनके यहां जो प्यार और स्नेह मिला उसके लिए क्या कहें, कहां से ऐसे शब्द लाएं जो उनके स्नेह को दर्शा सके, शब्द नहीं हैं हमारे पास उस स्नेह को दर्शाने के लिए। दो दिनों तक हम कोठारी जी के यहां रहे और जो अपनापन और स्नेह उन्होंने बरसाया कि क्या कहूं। वो कहते हैं कि बरसात में तो केवल तन भीगता है लेकिन उनके स्नेह ने हम सबके मन को भीगो दिया। दो दिन तक हर मिनट दर मिनट दोनों ने हम सबका खयाल रखा और इतना ही नहीं दो दिनों तक सुबह से लेकर रात तक और फिर सुबह से लेकर शाम तक सबको जयपुर के दर्शनीय स्थलों की सैर कराते रहे। उनके साथ बिताए हुए ये पल पूरी जिंदगी में एक मिनट के लिए भी धुंधली नहीं पड़ेगी। गुड़ की मिठास तो कुछ देर के लिए होती है लेकिन उनके प्रेम की मिठास बस पूछिए मत।
अरे हां, इन सब विवरणों में एक और दम्पत्ति की कहानी तो छूट ही गई, वो हैं संजय कौशिक जी के मित्र राकेश गुलिया और उनकी पत्नी मीनाक्षी गुलिया। वैसे तो मीनाक्षी जी से हम सबकी मुलाकात GDS के जोधपुर सम्मेलन में हुई थी और तभी उन्होंने अपने घर आने का न्यौता दिया था। वो न्यौता पूरा करने का दिन इतनी जल्दी आएगा इसका पता नहीं था। जैसे ही संजय कौशिक द्वारा पता चला कि हम लोग उधर से ही गुजर रहे हैं तो उन्होंने सीधा प्रेम मिश्रित आदेश दिया कि बिना घर गए यहां से आगे नहीं बढ़ सकते। अब उस प्रेम मिश्रित आदेश को ठुकराने की हिम्मत तो किसी में नहीं थी तो जयपुर से दिल्ली जाते हुए उनके घर पर पहुंच गए।
वहां पहुंचा तो देखते ही आश्चर्य की सीमा नहीं रही। हम लोगों के पहुंचने से पहले ही पूरे भोज की तैयारी उन दोनों ने कर रखा था। वो बाजरे की रोटी, तरह तरह की चटनियां, ताजे ताजे दही से निकाले हुए कटोरा भर के मक्खन और बाल्टी भर के मट्ठा (लस्सी), गुड़ और भी न जाने कई चीजें। वहां बैठकर हम लोगों ने जो खाना शुरू किया तो क्या कहें बस खाते ही चले गए और मेरी खुद की हालत ऐसी हुई कि हम उठने लायक भी नहीं रहे। खाने के बाद दो लोगों ने जब उठाया तो हम ठीक से उठ पाए। वापसी में भी उनका आदेश था कि चाहे जिस समय भी गुजरे यहां से होकर ही जाना है। अब वापसी में समय ऐसा कि जब वहां से गुजर रहे थे रात के करीब एक बज रहे थे और उनसे मिलना भी जरूरी था क्योंकि ये उनका आदेश था। पहले तो लगा कि इतनी रात में जगाना ठीक नहीं है लेकिन न जाने पर भी उनको दुख होता तो फिर पहुंच गए रात को एक बजे उनको परेशान करने और चाय पीकर और कुछ मीठी-प्यारी बातें करने के बाद फिर आगे के सफर पर चल पड़े थे। उनके यहां भी जो प्यार और अपनापन मिला वो कभी न भूलने वाले पलों में शामिल हुआ। उनकी मुलाकात लस्सी में मिले गुड़ की तरह तन-मन में बस गया।
कोठारी दम्पत्ति और गुलिया दम्पत्ति की मुलाकात पर कहने के लिए हमारे पास शब्द नहीं है। फिर भी इतना तो कह ही सकते हैं कि आज के समय जहां लोग मिलने के नाम पर बहाने बना लेते हैं कि हम बाहर जा रहे हैं, उस दिन हमें काम है और हम उपलब्ध नहीं होंगे, आदि आदि न जाने कितने बहाने। वहीं आभासी दुनिया में केवल नाम से परिचय होने के बावजूद रास्ते में स्वागत के लिए अपनी पलकें बिछाए जब ऐसे लोग तैयार मिलते हैं तो मन का मयूर ऐसे नाचता है जैसे बारहों महीने सावन हो, मन में बसी कलियां ऐसे खिलती है जैसे बसंत आ गया हो। अंततः यहीं कह सकते हैं कि जहां प्रेम मिले वहीं मन लगता है।
जब बुआ का निमंत्रण आया था तो लगा था कि अनजान जगह, अनजान लोग, अनजान शहर में कैसा महसूस होगा लेकिन वहां पहुंचकर हमें लगा ही नहीं कि हम किसी अनजान जगह पर अनजान लोगों के बीच आए हैं। मुझे लगता है कि शायद यही भाव बुआ के मन में उठ रहा होगा कि शादी में शामिल होने के लिए इतने लोगों को बुलाया है, पता नहीं उनको यहां आकर अच्छा लगेगा या नहीं लगेगा, वो लोग यहां आकर कैसा महसूस करेंगे, और इसके अलावा भी न जाने उनके मन में हमारी तरह कितने भाव आते-जाते रहे होंगे। पर बुआ जी एक बात हम अपनी तरफ से और वहां पहुंचे सभी साथियों की तरफ से आपको बताते हैं, लेकिन आप इसे अपने तक ही सीमित रखिएगा किसी को बताइएगा नहीं। बुआ जी, हम सभी ने पूरा पूरा आनंद लिया वहां जाकर, बहुत मजा आया था, वहां से आने का मन नहीं कर रहा था फिर भी आना पड़ा। वहां बिताए हर पल हम लोगों के लिए एक यादगार पल के रूप में सदा ही साथ रहेगा। आपसे इतना प्यार और स्नेह मिला उसके लिए कुछ कह नहीं सकता। बस यही कि बार बार ऐसे मौके पर जाने का मौका मिले।
जब हम अपने रिश्तेदारी में शादी में जाते हैं तो सभी लोग पहले से परिचित होते हैं लेकिन यहां हम सबके लिए वहां उपस्थित सभी लोग अपरिचित थे लेकिन हम सबके वहां पहुंचने पर बुआ ने वहां उपस्थित लोगों से हम सबका परिचय करवा दिया जिससे हमें कहीं अहसास ही नहीं हुआ कि हम ऐसे जगह हैं जहां हमें कोई नहीं जानता। बुआ की बचपन कुछ सहेलियों को भी हम लोगों ने बुआ बना दिया जिनमें दो के नाम हैं अलजीरा लोबो और रुक्मिणी मुंदरा। बुआ ने इस शादी में बुलाकर एक नई परम्परा को जन्म दिया है, एक नए सफर की शुरुआत किया है जिसमें हम उनके साथ कदम से कदम मिलाकर चलने की कोशिश करेंगे। कोशिश इसलिए कि कोशिशें ही कामयाब होती है, वादों का क्या वो तो टूट जाते हैं।
इस शादी में आना जाना और आपसी संबंध जिस चीज के कारण है उसका नाम है GDS (घुमक्कड़ी दिल से) और बिना GDS के ये संभव नहीं था। GDS के पूरे नाम में जो दिल शब्द है वो वास्तविक में दिल से ही है, इसे समझने के लिए भी एक दिल चाहिए, दिमाग लगाकर इसे समझ पाना संभव नहीं है, केवल दिल से ही समझ सकते हैं। एक बात जो मैं लिखना भूल ही गया। जब हम सब शादी में शामिल होने के बाद वापिस आ रहे थे तो विदाई मुलाकात के समय विवाह मंडप में पूरे घरातियों और बरातियों के सामने जब बुआ ने कहा कि अब निकालो GDS का बैनर, अब लगाओ अपना नारा जो तुम लोग लगाते हो तो हम सब शब्दहीन हो गए। किसी को इस बात की तो उम्मीद ही नहीं थी कि ऐसा भी हो सकता है। विवाह मंडप में मंच पर इस तरह नारा लगाना बहुत ही मुश्किल काम था। हम लोगों के मना करने के बाद भी बुआ नहीं मानाी और GDS जिंदाबाद, घुमक्कड़ी दिल से....मिलेंगे फिर से का नारा लगवा ही दिया, और उसके बाद हम सबने बुआ से विदाई लिया और मीठी-मीठी यादों को मन में बसाए अपने घर की तरफ चल पड़े।
अब अंत में केवल यही जय GDS और जय GDS।
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