नालन्दा
छठी शताब्दी ई.पू. में महावीर और बुद्ध के काल से ही नालन्दा की ऐतिहासिकता के प्रमाण प्राप्त होते हैं। बुद्ध के परम प्रिय शिष्यों में से एक सारिपुत्र के जन्म एवं निर्वाण स्थल के रूप में भी इसे जाना जाता है। (सारिपुत्र का जन्म महाविहार के पास के ही एक गांव में हुआ था जिसका अभी सारिचक्क है।) प्राचीन कला और संस्कृति के विख्यात शिक्षा संस्थान और महाविहार के रूप में इसकी पहचान पांचवीं शताब्दी में स्थापित हुई, जब देश-दुनिया से लोग ज्ञानार्जन हेतु यहां आते थे। इस संस्थान से जुड़े विद्वानों में नागार्जुन, आर्यदेव, वसुबन्धु, धर्मपाल, सुविष्णु, असंग, शीलभद्र, धर्मकीर्ति, शान्तरक्षित आदि लोग प्रमुख थे। इन सब के अलावे चीनी यात्रियों में से ह्नेन सांग और इत्सिंग के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं, जिन्होंने अपने यात्रा वृत्तांत में नालन्दा के महाविहारों, मंदिरों और भिक्षुओं के जीवनचर्या आदि का विस्तृत वर्णन किया है। धर्मशास्त्र, व्याकरण, तर्कशास्त्र, खगोलीय, तत्वविज्ञान, चिकित्सा एवं दर्शनशास्त्र आदि इस शिक्षा केन्द्र में अध्ययन के प्रमुख विषय थे। अभिलेखीय प्रमाणों के अनुसार समकालीन शासकों द्वारा दान किए गए अनेक गांवों के राजस्य से इन महाविहारों का खर्चा चलता था।
प्राचीन युग के महानतम् विश्वविद्यालय के रूप में प्रतिष्ठित नालन्दा महाविहार की स्थापना गुप्त सम्राट कुमारगुप्त (413 से 455 ई.) द्वारा की गई थी। कन्नौज नरेश हर्षवर्धन (606-647 ई.) और पूर्वी भारत के पाल शासकों (आठवीं से बारहवीं शताब्दी) के समय में भी महाविहारों को राज-प्रश्रय अनवरत प्राप्त होता रहा। हालांकि इस महान शिक्षा संस्थान का क्रमिक ह्रास परवर्ती पाल शासकों के समय से ही प्रारंभ हो चुका था, लेकिन लगभग 1200 ई. में बख्तियार खिलजी जैसे आततायिों के आक्रमण के परिणामस्वरूप नालन्दा की कीर्ति पूर्णतः ध्वस्त हो गई।
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा कराए गए उत्खनन (1915-37 और 1974-82) से यहां ईंट निर्मित 6 मंदिरों एवं ग्यारह विहारों की सुनियोजित शृंखला अनावृत्त हई जिनका विस्तार एक वर्ग किलोमीटर से भी अधिक है। लगभग तीस मीटर चैड़े उत्तर-दक्षिण पथ के पश्चिम में मंदिरों की और पूरब में विहारों की शृंखला है। आकार और विन्यास में सभी विहार लगभग एक जैसे हैं। सर्वाधिक महत्वपूर्ण संरचना दक्षिणी छोर पर स्थित मंदिर संख्या 3 है जिसमें निर्माण के सात चरण हैं। इसके निकट छोटे आकार के मनौती स्तूपों का एक विशाल समूह है।
महाविहारों और मंदिरों के भग्नावशेषों के साथ-साथ प्रस्तर, कांस्य एवं स्टको में निर्मित अनेक मूर्तियां तथा कलाकृतियां उत्खन्न से प्राप्त हुई हैं। इनमें से विभिन्न मुद्राओं में बुद्ध, अवलोकितेश्वर, मंजुश्री, तारा, प्रज्ञापारमिता, मारीची, जम्भल आदि बौद्ध प्रतिमाएं तथा विष्णु, शिव-पार्वती, महिषासुर-मर्दिनी, गणेश, सूर्य, इत्यादि, हिंदू देव प्रतिमाएं प्रमुख हैं। इनके अतिरिक्त भित्तिचित्र, ताम्रपत्र, प्रस्तर एवं ईंट पर उत्कीर्ण अभिलेख, मुद्राएं, फलक, सिक्के, टेरकोटा, मृदभाण्ड आदि की प्राप्ति भी उल्लेखनीय है। इन सभी कलाकृतियों व पुरावस्तुओं को भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा संचालित स्थानीय संग्रहालय में दर्शकों के अवलोकनार्थ प्रदर्शित किया गया है।
(ये फोटो हिमालय, पहाड़, नदियां, चांद और सूरज और प्राकृतिक दृश्यों की तरह है फिर भी झेल लीजिएगा। पहाड़ों और समुद्रों की घुमक्कड़ी तो सब करते ही हैं, यहां भी एक बार अवश्य जाएं। मंदिर संख्या 3 का फोटो कमेंट में लगा रहा हूं।)
फोटो : 5 फरवरी 2017
छठी शताब्दी ई.पू. में महावीर और बुद्ध के काल से ही नालन्दा की ऐतिहासिकता के प्रमाण प्राप्त होते हैं। बुद्ध के परम प्रिय शिष्यों में से एक सारिपुत्र के जन्म एवं निर्वाण स्थल के रूप में भी इसे जाना जाता है। (सारिपुत्र का जन्म महाविहार के पास के ही एक गांव में हुआ था जिसका अभी सारिचक्क है।) प्राचीन कला और संस्कृति के विख्यात शिक्षा संस्थान और महाविहार के रूप में इसकी पहचान पांचवीं शताब्दी में स्थापित हुई, जब देश-दुनिया से लोग ज्ञानार्जन हेतु यहां आते थे। इस संस्थान से जुड़े विद्वानों में नागार्जुन, आर्यदेव, वसुबन्धु, धर्मपाल, सुविष्णु, असंग, शीलभद्र, धर्मकीर्ति, शान्तरक्षित आदि लोग प्रमुख थे। इन सब के अलावे चीनी यात्रियों में से ह्नेन सांग और इत्सिंग के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं, जिन्होंने अपने यात्रा वृत्तांत में नालन्दा के महाविहारों, मंदिरों और भिक्षुओं के जीवनचर्या आदि का विस्तृत वर्णन किया है। धर्मशास्त्र, व्याकरण, तर्कशास्त्र, खगोलीय, तत्वविज्ञान, चिकित्सा एवं दर्शनशास्त्र आदि इस शिक्षा केन्द्र में अध्ययन के प्रमुख विषय थे। अभिलेखीय प्रमाणों के अनुसार समकालीन शासकों द्वारा दान किए गए अनेक गांवों के राजस्य से इन महाविहारों का खर्चा चलता था।
प्राचीन युग के महानतम् विश्वविद्यालय के रूप में प्रतिष्ठित नालन्दा महाविहार की स्थापना गुप्त सम्राट कुमारगुप्त (413 से 455 ई.) द्वारा की गई थी। कन्नौज नरेश हर्षवर्धन (606-647 ई.) और पूर्वी भारत के पाल शासकों (आठवीं से बारहवीं शताब्दी) के समय में भी महाविहारों को राज-प्रश्रय अनवरत प्राप्त होता रहा। हालांकि इस महान शिक्षा संस्थान का क्रमिक ह्रास परवर्ती पाल शासकों के समय से ही प्रारंभ हो चुका था, लेकिन लगभग 1200 ई. में बख्तियार खिलजी जैसे आततायिों के आक्रमण के परिणामस्वरूप नालन्दा की कीर्ति पूर्णतः ध्वस्त हो गई।
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा कराए गए उत्खनन (1915-37 और 1974-82) से यहां ईंट निर्मित 6 मंदिरों एवं ग्यारह विहारों की सुनियोजित शृंखला अनावृत्त हई जिनका विस्तार एक वर्ग किलोमीटर से भी अधिक है। लगभग तीस मीटर चैड़े उत्तर-दक्षिण पथ के पश्चिम में मंदिरों की और पूरब में विहारों की शृंखला है। आकार और विन्यास में सभी विहार लगभग एक जैसे हैं। सर्वाधिक महत्वपूर्ण संरचना दक्षिणी छोर पर स्थित मंदिर संख्या 3 है जिसमें निर्माण के सात चरण हैं। इसके निकट छोटे आकार के मनौती स्तूपों का एक विशाल समूह है।
महाविहारों और मंदिरों के भग्नावशेषों के साथ-साथ प्रस्तर, कांस्य एवं स्टको में निर्मित अनेक मूर्तियां तथा कलाकृतियां उत्खन्न से प्राप्त हुई हैं। इनमें से विभिन्न मुद्राओं में बुद्ध, अवलोकितेश्वर, मंजुश्री, तारा, प्रज्ञापारमिता, मारीची, जम्भल आदि बौद्ध प्रतिमाएं तथा विष्णु, शिव-पार्वती, महिषासुर-मर्दिनी, गणेश, सूर्य, इत्यादि, हिंदू देव प्रतिमाएं प्रमुख हैं। इनके अतिरिक्त भित्तिचित्र, ताम्रपत्र, प्रस्तर एवं ईंट पर उत्कीर्ण अभिलेख, मुद्राएं, फलक, सिक्के, टेरकोटा, मृदभाण्ड आदि की प्राप्ति भी उल्लेखनीय है। इन सभी कलाकृतियों व पुरावस्तुओं को भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा संचालित स्थानीय संग्रहालय में दर्शकों के अवलोकनार्थ प्रदर्शित किया गया है।
(ये फोटो हिमालय, पहाड़, नदियां, चांद और सूरज और प्राकृतिक दृश्यों की तरह है फिर भी झेल लीजिएगा। पहाड़ों और समुद्रों की घुमक्कड़ी तो सब करते ही हैं, यहां भी एक बार अवश्य जाएं। मंदिर संख्या 3 का फोटो कमेंट में लगा रहा हूं।)
फोटो : 5 फरवरी 2017
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